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श्रमण-संस्कृति
दिशाओं को नमस्कार किया करे। अतएव वह अपने पिता की शिक्षा को पूज्य समझकर उपर्युक्त विधि से दिशाओं को नमस्कार करता है। भगवान बुद्ध ने उसे यह उपदेश दिया कि आर्य धर्म में दिशाओं को इस प्रकार नमस्कार नहीं किया जाता। भगवान बुद्ध ने उसे यह बताया कि माता-पिता को पूर्व दिशा, गुरु को दक्षिण दिशा, स्त्री- पुत्रों को पश्चिम दिशा, मित्रों को उत्तर दिशा, दास एवं भृत्यों को नीचे की दिशा तथा श्रमण एवं ब्राह्मणों को उर्ध्व दिशा के समान समझना चाहिये। इनके प्रति अपने कर्तव्य का पालन करने वाला ही दिशाओं के नमस्कार का फल पाता है। यह उल्लेख हुआ है कि सिगाल गौतम बुद्ध की शिक्षा से अभिभूत होकर बौद्ध धर्म अंगीकार कर लेता है ।
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उपर्युक्त साक्ष्य से बौद्ध धर्म में दिशा पूजा के विधि-विधानों का बोध होता है। इस साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि दिशा व्रतिक प्रातः काल स्नान कर पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर दक्षिणावर्त में दिशाओं को नमस्कार करते थे । स्पष्ट है कि दिशा - पूजा के विधि-विधान वैदिक धर्म के याज्ञिक विधानों से पूर्णतया भिन्न एवं अति सरल थे।
गौतम बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सिगाल नामक दिशा- वृत्तिक' का अपना दिशा - धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर यह सूचित करता है कि बौद्ध धर्म जैसे बृहत् धर्मों के अभ्युदय एवं उनके प्रसार ने दिशा धर्म जैसे लोक धर्म के अस्तित्व को किस प्रकार संकटापन्न एवं प्रभावित किया है।
बौद्ध साहित्य में दिशा पूजा सम्बन्धी विपुल सूचनाएं उपलब्ध हैं । बौद्ध परम्परा में भी दिशाओं के रक्षक देवताओं की कल्पना हुई है। चारों दिशाओं के रक्षक इन देवताओं को बौद्ध साहित्य में चतुर्महाराजिक देव या चत्तारों महाराजानों कहा गया है। ये चतुर्महाराजिक देव चार प्रकार के लौकिक देवताओं गन्धर्व, कूष्माड, नाग एवं यक्षों के अधिपति (महाराज) हैं, इसीलिए इन्हें सम्मिलित रूप से चतुर्महाराजिक देव कहा गया है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर दिशा के क्रमशः गन्धर्व राज धृतराष्ट्र, कुष्माड राज विरूटक, नागराजविरूपाक्ष एवं यज्ञराज वैश्रवण (कुबेर) रक्षक देव हैं। नागों को पश्चिम दिशा से सम्बद्ध करने की परम्परा का मूल वैदिक धर्म में निहित है। शतपथ ब्राह्मण' में नागलोक को पश्चिम दिशा में स्थित बताया गया है। चारों