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श्रमण-संस्कृति
(गलिगद्दह ) की उपमा दी गयी है। आचार्य ऐसे शिष्यों से तंग आकर, उन्हें उनके भाग्य पर छोड़ देते और स्वयं वन में तप करने चले जाते हैं।
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दुर्विनीत शिष्य अपने आचार्यों पर हाथ भी उठा देते थे । इन्द्रपुर के राजा इन्द्रदत्त के बाईस पुत्रों को जब आचार्य के पास पढ़ने भेजा गया तो उन्होंने कुछ नहीं पढ़ा। आचार्य यदि कभी कुछ कहते सुनते तो वे आचार्य को मारते-पीटते और दुर्वचन बोलते । यदि आचार्य उनकी ताड़ना करते तो वे जाकर अपनी मां से जाकर शिकायत करते। मां आचार्य के ऊपर गुस्सा करती और ताना मारती कि क्या आप समझते है कि पुत्र कहीं से ऐसे ही आ जाते हैं ।
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शिष्यों को शैल, कुट, छलनी आदि के समान बताया गया है। कुछ शिष्य शैल (पर्वत) के समान अत्यन्त कठोर होते हैं, और कुछ कृष्णभूमि (काली मिट्टी वाली जमीन) के समान आचार्य के बताये हुए अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ होते हैं। कुछ (घट) चार प्रकार के बताये गये हैं छिद्र - कुट (जिस घड़े की तली फूटी हुयी हो), खंड- कुट (जिसके कन्ने टूटे हुए हो), वोट- कुट (जिसका एक ओर का कपाल टूटा हुआ हो) और सकल
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कूट (जो घड़ा सम्पूर्ण हो) कुछ शिष्य छिद्र कुट के समान, कुछ खंड कुट के समान, कुछ वोट- कुट के समान और कुछ सकल-कुट के समान कहे गये हैं। कुछ शिष्य चाकिणी (छलनी) के समान होते थे । वे एक कान से सुनते हों और दूसरे से निकाल देते थे। इसके विपरीत कुछ शिष्य खंडर (खपुर : तापसों का एक पात्र) के समान होते थे । जो आचार्य की बातों को भलीभांति सुनते थे।
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जैन युग में विद्यार्थी सादा जीवन व्यतित करते थे। कुछ विद्यार्थी अध्यापक के घर रहकर पड़ते, और कुछ नगर के धनवन्तों के घर अपने रहने और खाने-पीने का प्रबन्ध कर लेते थे। कभी-कभी विद्यार्थीयों का विवाह अपने गुरु की कन्या से ही सम्पन्न हो जाता था ।" विद्यार्थी जब बाहर से विद्याध्ययन समाप्त करके घर लौटते तो उनका धूमधाम से स्वागत किया जाता था | 12
अध्यापक द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषय जैन आगमों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अध्यापक अपने शिष्यों को विभिन्न प्रकार के विषयों का ज्ञान देता था। स्थानांगसूत्र में नौ पाप श्रुत की शिक्षा दी जाती थी - 1. उत्पातशास्त्र,
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