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जैन शिक्षा व्यवस्था में गुरु शिष्य सम्बन्ध
अपने गुरुओं के प्रति अत्यन्त श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते थे । अच्छे शिष्य के सम्बन्ध में कहा है कि वह गुरुजी के पढ़ाये हुए विषय को हमेशा ध्यानपूर्वक सुनता है, प्रश्न पूछता है, प्रश्नोत्तर सुनता है, उसका अर्थ ग्रहण करता है, उसपर चिन्तन करता है, उसके प्रमाणिकता का निश्चय करता है उसके अर्थ को याद रखता है और तदनुसार आचरण करता है। कोई सुयोग्य शिष्य अपने अध्यापक के प्रति कभी अशिष्टता का व्यवहार नहीं करता, कभी मिथ्या भाषण नहीं करता है, तथा एक जातिमंद अश्व की भांति वह उसकी आज्ञा का पालन करता है। यदि उसे पता लगे कि उसका आचार्य कुपित हो गया है तो प्रिय वचनों से उसे प्रसन्न करता है, हाथ जोड़कर उसे शान्त करता है और अपने प्रभावपूर्ण आचरण की क्षमा मांगता हुआ भविष्य में वैसा न करने का वचन देता है। वह न कभी आचार्य के बराबर में, न उसके सामने, और न ही उसके पीछे की तरफ बैठता है। कभी आसन या शैय्या पर बैठकर वह प्रश्न नहीं पूछता, बल्कि यदि कुछ पूछना, बल्कि यदि कुछ पूछना हो तो अपने आसन से उठकर, पास में आकर, हाथ जोड़कर पूछता है । यदि कभी आचार्य कठोर वचनों द्वारा शिष्य को अनुशासन में रखना चाहे तो वह क्रोध न करके शान्तिपूर्वक व्यवहार करता है, और सोचता है कि इससे उसका लाभ ही होने वाला है। जैसे किसी अविनीत घोड़े को चलाने के लिए बार-बार कोड़ा मारने की आवश्यकता होती है, वैसे ही विद्यार्थी को अपने गुरु से बार-बार कर्कश वचन सुनने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि जैसे कोई विनीत घोड़ा अपने मालिक का कोड़ा देखते ही दौड़ने लगता है वैसे ही आचार्य का इशारा पाकर सुयोग्य विद्यार्थी सत्कार्य में प्रवृत्त हो जाता है । वास्तव में वही विनीत कहा जाता है जो अपने गुरु के आज्ञा का पालन करता है, उसके समीप रहता है और उसका इशारा पाते ही अपने काम में लग जाता है। लेकिन अविनीत विद्यार्थी भी होते थे। अध्यापक उन्हें अनुशासन में लाने के लिए ठोकर (खड्डया) और चपत (चवेडा) मारते, दण्ड आदि से प्रहार करते और आक्रोशपूर्ण वचन कहते।' अविनीत शिष्यों की तुलना गलिया बैलों (खलुंक) से की गयी है जो धैर्य न रखने के कारण, आगे बढ़ने से जन्नाद दे देते हैं। ऐसे शिष्यों को यदि किसी कार्य के लिए भेजा जाये तो वे इच्छानुसार पंख निकले हुए हंस शावकों की भांति, इधर-उधर घूमते रहते हैं । ऐसे कुशिष्यों को अत्यन्त कुत्सित गर्दभ
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