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जैन शिक्षा व्यवस्था में गुरु शिष्य सम्बन्ध
197 2. निमित्तशास्त्र, 3. मन्त्रशास्त्र, 4. आख्यायिका, 5. चिकित्सा, 6. लेख आदि बहत्तर कलायें, 7. आवरण (वास्तु विज्ञान), 8. लौकिक श्रुत, 9. बुद्ध शासन आदि विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था।
जैन सूत्रों में शिल्प तथा ज्ञान-विज्ञान में प्रमुखतः बारह कलायें (विद्यायें) प्रमुख रूप से पाठ्यक्रम में सम्मिलित थी। 1. लेख और गणित', 2. काव्य, 3. रूप विद्या, 4. संगीत, 5. उदक मृत्तिका, 6. छयूत,16 7. स्वास्थ, 8. लक्षणशास्त्र,” 9. सकुन विद्या, 10. ज्योतिष विद्या, 11. रसायन विद्या,' 12. स्कन्धावारमान (वास्तुकला एवं युद्ध शिक्षा) आदि विषयों का अध्ययन-अध्यापन गुरु-शिष्यों के माध्यम से होता था। अध्ययन-अध्यापन का माध्यम
जैन शिक्षा व्यवस्था में गुरु-शिष्य के अध्ययन-अध्यापन का माध्यम अर्धमागधी भाषा थी। भगवान महावीर अर्द्धमागधी भाषा में अपने निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश दिया था वागभट्ट ने लिखा है कि हम उस वाणी को नमस्कार करते हैं जो सबकी अर्द्धमागधी है। अर्द्धमागधी जैन आगमों की भाषा है इसलिए जैन शिक्षा की भाषा अर्द्धमागधी को स्वीकार किया गया। जर्मन विद्वान रिचर्ड पिसल ने अर्द्धमागधी के विभिन्न रूपों का विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलन होने का उल्लेख किया है।
इस प्रकार जैन शिक्षा व्यवस्था में गुरु-शिष्य सम्बन्ध के विभिन्न आयामों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि जैन धर्म अपने धार्मिक विषयों के साथ ही साथ युग की परम्परागत विषयों को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था। पठन-पाठन का माध्यम, अच्छे-बुरे शिष्य, अध्यापक की योग्यता आदि के एक संक्षिप्त सर्वेक्षण से उनकी शिक्षा व्यवस्था के एक अंग का संक्षिप्त संकेत मात्र किया गया है।
संदर्भ
1. राजप्रश्नीय सूत्र, 190, पृ० 328। 2. स्थानांग 3.135 तथा मनुस्मृति 2.225 आदि। 3. आवश्यक नियुक्ति 136 तथा एच० आर० कपाड़िया, द जैन सिस्टम आव एजूकेशन,
जर्नल ऑफ युनिवर्सिटी ऑफ बाम्बे, जनवरी 1940, पृ० 206 आदि।