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श्रमण-संस्कृति वैदिक युग के समान बौद्ध काल में भी दासियों एवं परिचारिकाओं के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। बौद्ध साहित्य में उन सभी स्त्रियों को दासी कहा गया है जो अपनी आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति से विवश होकर दूसरे परिवारों की सेवा करती थी। इनका जीवन परतन्त्रता की बेड़ियो में जकड़ा रहता था तथा अपनी स्थिति से विवश रहती थी। इनका जीवन यातनापूर्ण तथा कठिन होता था। स्वामी इनका वध तक कर देते थे। अतः वे दण्ड से सदा भयभीत रहती थीं। इनका विक्रय भी किया जाता था तथा उपहार के रूप में एक दूसरे को प्रदान भी किया जाता था। दासियाँ उस समय वैयक्तिक भोग की भी वस्तु मानी जाती थी क्योंकि समाज में उनका स्थान मरणतुल्य था। वे परिवार में सभी प्रकार का कार्य करने को प्रस्तुत करती थी। पालि साहित्य में ध्वजादता स्वेच्छागतदासी कुल दासी धनेन क्रीता, दलिभ, कुम्मदसी प्रेषणकारिका और भयप्प पुण्ण आठ प्रकार की दासियों का उल्लेख मिलता है। ये सभी दासियाँ स्वामी की सम्पत्ति समझी जाती थी।
इन दासियों के अतिरिक्त समाज में परिचारिकाओं का भी उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है जिनका प्रमुख कार्य बच्चों की देखभाल पालन पोषण तथा उद्यान विहार होता था। राज महलो में ये परिचारिकाएं धाली चेदी मृतक अथवा कामकार के रूप में अपना जीवन व्यतीत करती थी।
विविध बौद्ध ग्रन्थों से पता-चलता है तत्कालीन समाज की त्रि चौकोपरदे में ररखना समाज में उनकी स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाना था। पर्दा प्रथा न होने से हम यह कह सकते है कि उस समय की नारियों स्वतन्त्र थीं। पुत्र बधू के रूप में कुछ अधिकार और कर्तव्य प्राप्त थे। यदि वे पर्दे में होती तो उन्हें कर्तव्य और अधिकार को पूरा करने में बाधा उत्पन्न होती। जातको के बहुत से ऐसे प्रसंग है जिसमें रानियाँ विना पर्दे के स्वच्छन्दता पूर्वक मंत्रियों एवं अधिकारियों के साथ बात करती थी।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि समाज में नारियों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण उदार थे। स्वयं तथागत का विचार भी नारियों के प्रति सहयोगात्मक था। भगवान बुद्ध स्त्रियों की सुगति के सम्बन्ध में कहते हैं कि स्त्री को श्रद्धालु