________________
26
प्रारम्भिक बौद्ध वाङ्गमय में प्रतिबिम्बित नारी जीवन
मुरली मनोहर तिवारी
नारी समाज और संस्कृति की सबसे बड़ी निर्मात्री और संरक्षिका है। उसकी ममता से युक्त स्नेह सिक्त आंचल की छाया मानव को प्रत्येक अवस्था में किसी न किसी रूप में सद आदर्शों का पथ प्रशस्त कर प्रगति का मार्ग निर्दिष्ट करती रही है। डाउसन का कहना है कि "नारियों ने ही संस्कृति की नींव डाली और मोर भटकते हुए पुरुषों का हाथ पकड़कर उन्हें घर में बसाया।" ऐसे ही नारियों के व्याग, प्रेम, धैर्य एवं बलिदान की यशगाथाओं से साहित्य के अनेक पृष्ठ आज भी गौरवान्वित् है। वह पुली भगिनी, पत्नी तथा माता के रूप में अपने सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यो का पालन करती हुई दया क्षमा शिवा एवं धाली के रूप में सदैव से प्रतिष्ठित रही है।
प्राग् ऐतिहासिक युग में नारी की स्थिति सम्मानजनक थी। नारी माँ के रूप में पूज्या थीं। मातृदेवी की मूर्तियाँ इस बात को इंगित करती हैं। किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि नारी को जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी पुरुष के संरक्षण में रहना होता था। कदाचित उनके स्वच्छन्द विचरण को उचित नहीं समझा जाता था जैसा मनुस्मृति में कहा गया है।
पितारक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षति स्थाविरे पुत्राः स्त्रयः स्वातन्त्र्यं न अर्हति।।
प्रारम्भिक बौद्ध वाङ्गमय में नारी का जो चित्रण हुआ है वह 500 ई०पू० से 500 ईसवी की कालावधि का है। इस 1000 वर्षों में लम्बी अवधि में