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प्रारम्भिक बौद्ध वाङ्गमय में प्रति बिम्बित नारी जीवन
183 भारतीय समाज की स्थिति में न जाने कितने परिवर्तन हुए और युगे युगे नारी के बारे में अवधारणाएं बदलती रही इनकी परिस्थिति भी एक सी नहीं रही कभी उन्हें आदर-सम्मान और समानता मिली तथा कभी निरादर-अपमान और असमानता।
बौद्ध काल में नारियों की स्थिति जानने से पूर्व उसके पूर्ववर्ती समाज के विषय में जानना भी आवश्यक है क्योंकि बौद्ध मालीन समाज पूर्ववर्ती भारतीय समाज का एक विकसित रूप था। वैदिक काल में स्त्री पुरुषों का सामाजिक स्तर समान था। स्त्रियाँ भी पुरुषों में समान परिवार की स्वामिनी थी। उस काल में जनसंख्या कम थी इस कारण विवाह का प्रमुख लक्ष्य सन्तान उत्पन्न करना ही था क्योंकि ऋग्वेद के सूक्तकार ऋषियों ने अपने ईश्वर देवता से आयु और धन के साथ सदैव सन्तान की भी कामना की है। सही अर्थो में वैदिक कालीन नारियों का आदर्श यह था कि उनका गृहस्थ जीवन सुखी हो उनके पति उनसे स्नेह करें तथा वे स्वस्थ एवं वलवान हों। उन्हें पुरुषों के समान शिक्षा दी जाती थी। लोपा मुद्रा, अपाला, घोषा, जाबाला, गार्गी आदि इस काल की विदुषियाँ थी। विवाह परिपक्वावस्था में होता था, वर वरण की छूट थी पर्दा प्रथा नहीं था। लेकिन ऐसा विदित होता है कि उत्तर वैदिक काल में उत्तरार्ध में नारियों की स्थिति में कुछ ह्रास दिखाई देता है और उनका स्थान स्वामिनी का न होकर सेविका का हो गया।
बौद्ध साहित्य में नारियों का जो चित्रण हुआ है वह बहुत कुछ उत्तर वैदिक काल जैसा ही है लेकिन यह माना गया है कि बौद्ध युग धर्म के साथ-साथ राजनीति तथा सामाजिक क्षेत्रों में भी क्रान्ति का युग था तथा इन सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। नारी को पूरी श्रेष्ठता प्रदान करने का श्रेय महात्मा बुद्ध को ही है क्योंकि पुत्र तथा पुत्री के जन्म में उन्होंने कोई अन्तर नहीं माना।
जातक साहित्यों में कौमार्य मर्यादा की सुरक्षा का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है जिसके दायित्व के लिए कन्धा के पालन पोषण में माता-पिता का महत्त्वपूर्ण स्थान होता था।
वयस्क होने में पश्चात कन्या का पिता सुयोग्य वर के साथ उसका