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श्रमण-संस्कृति
करने का भी मार्ग प्रशस्त किया । इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं जिसमें जैन धर्मावलम्बियों ने किसी पर आक्रमण किया हो और एकात्मकता को धक्का लगाया हो । भारतीय संस्कृति में उसका यह अन्य योगदान है को किसी भी कीमत पर विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनकी अहिंसक धार्मिक जीवन पद्धति और दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक चिन्तन का परिणामथा कि सदैव उसने जोड़ने का काम किया, तोड़ने का नहीं।
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निष्कर्षत: भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रमुख रूप से श्रमण और ब्राह्मण परम्परायें पल्लवित होती रही हैं। दोनों परम्परायें पृथक-पृथक होते हुए भी परस्पर में परिपूरक हैं। प्राचीनतम वैदिक साहित्य में समागत वातरशना, श्रमण, व्रात्य, अर्हित, ऋषभ, केशी, पुण्यशील, यति, मुनि, आदि शब्द जैन संस्कृति के प्रभावशाली अस्तित्व की सूचना देते हैं और मोहन०, हड़प्पा, लोहानीपुर में प्राप्त योगी ऋषभदेव की कायोत्सर्गी मूर्तियाँ उसकी सांस्कृतिक विरासत की कथा कहती हैं । वस्तुतः श्रमणधारा का मूल प्रवर्तन जैन संस्कृति से हुआ है। बौद्ध संस्कृति तो 6ठीं शता० ई० पू० की देन है । सहस्रातिसहस्र प्राचीन इस जैन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को दार्शनिक सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों में अत्यन्त समुद्ध किया है। 14 वस्तुतः इसने जिस तीर्थवादी प्रवृत्ति को विकसित किया वहाँ पूजा नहीं ध्यान है, वासना नहीं वीतराग अवस्था है अतः वह जिन मार्ग है ऐसे जिनों का जिन्होंने कर्म वासना को जीतकर स्वानुमति के आधार पर उपदेश दिया है स्वयं विशुद्धि के चरम शिखर पर पहुँचकर सभी प्राणियों के कल्याण की बात कही है। स्पष्टत: जैन धर्म और दर्शन का भारतीय संस्कृति पर व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है।
वस्तुतः भारतीय संस्कृति से मात्र जैन धर्म ही सर्वाधिक कठोर और उग्र सीमाओं को स्वीकार करने वाला धर्म रहा है। यही कारण है कि बुद्ध के मध्यम मार्ग के समान यह व्यापक नहीं हो सका क्योंकि उसकी उग्र कठोरता इसके प्रचार-प्रसार में बाधक बनी परन्तु बौद्ध धर्म के अनेक तत्व जैन धर्म से ग्रहीत हैं और उसके सांस्कृतिक अवदानों को परवर्ती भारतीय दर्शनों ने भी स्वीकार कर लिया ।