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जैन धर्म का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव
179 और अहिंसावादी विचार धारा को प्रचारित करने का अथक प्रयत्न किया, धनोपार्जन के सिद्धान्तों को न्यायवेत्ता की ओर मोड़ा, मूक प्राणियों की वेदना को अहिंसा की चेतनादायी संजीवनी से दूर किया। सामाजिक विषमता की सर्वभक्षी अग्नि को समता के शीतल जल और मन्द बयार से शान्त किया। जीवन के प्रत्येक अंग में अहिंसा और जीवनघाती व्यंजनों से मुक्ति के महत्व को प्रदर्शित कर मानवता के संरक्षण में जैन संस्कृति ने सर्वाधिक योगदान दिया है।
जैन संस्कृति में एकात्मकता और राष्ट्रीयता को उतना ही महत्त्व दिया गया है जितना चरित्र को। धर्म और संस्कृति परस्पर गुथे हुए अविच्छिन्न अंग हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में उतार-चढ़ाव और उत्थान-पतन आये परन्तु सांस्कृतिक एकता कभी विच्छिन्न नहीं हो सकी। इतिहास के उदय काल से आज तक एकात्मकता वैशिष्ट्य को जैन संस्कृति सहेजे हुये है। वस्तुतः राष्ट्र एक सुन्दर मनमोहन शरीर है। उसके अनेक अंगोपांग हैं जिनकी प्रकृति और विषय भिन्न-भिन्न हैं। अपनी सीमा से जो उनका लगाव है उनमें परस्पर संघर्ष भी होते हैं। इन सबके बावजूद वह मूल आत्मा से पृथक होते दिखाई नहीं देते हैं। कहा जा सकता है कि हमारे राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की श्रृंखला से स्नेहिलतापूर्वक भली-भाँति जुड़ा हुआ है जिसमें जैन संस्कृति का अनूठा योगदान है। विविधता में पली एकता, सौजन्य, सौहार्द को जन्म देती हुई 'परस्परोपग्रहों जीवानाम्' का हृदयहारी पाठ पढ़ाती है और सज्जनता को प्रतिफलित कराती है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और यदुवंशी भगवान् कृष्ण ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियों के बीच की सुदृढ़ कड़ियाँ बन गये और भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक मूल स्वर और अधिक मिठास लेकर गुंजित होने लगे। इस मिठास को पैदा करने में जैनधर्म का बेजोड़ हाथ रहा है। जैन धर्म प्रारंभ से ही वस्तुतः एकात्मकता का पक्षधर रहा है। उसका अनेकात्मकता का सिद्धान्त अहिंसा की पृष्ठभूमि में एकात्मकता को ही पुष्ट करता रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य हैं। हिंसा के विरोध में अभिव्यक्त अपने ओजस्वी और प्रभावक विचारों से जैनाचार्यों ने एक ओर जहाँ दूसरों के दुःखों को दूर करने का प्रयास किया वही मानव-मानव के बीच पनप रहे अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त