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जैन धर्म का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव
175 खाना-पीना चाहिए इसका विधान मूलाचार दशवैकालिक आदि ग्रंथों में उपलब्ध है। अर्थात् समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है
__ अहिंसा निउणं दिट्ठा सब्बभूयेसु संजमो।
जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना, रगड़ना इन चार उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है उसी प्रकार श्रुत, शील, तप, दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है।'
संजमु सीलु सउज्जु तवु सूरि हि गुरु सोइ। दाहक-छेदक-संघायकसु उत्तम कंचणु होई।।
(भावपाहुण 143, दशवैकालिक 1/1) अत: जीवन का सर्वागीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है। पानी छानकर पानी, रात्रि भोजन निषेध, अष्टमूलगुणो का परिपालन, निर्व्यसनी जीवन, समन्वयात्मक दृष्टि इत्यादि ऐसे नियमों का विधान इसीलिए किया गया है कि साधक अहिंसक और संयमी बनकर अहिंसक समाज की रचना कर सके।
जैन संस्कृति मूलतः अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निर्गन्ध, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। राग-द्वेषादि भावों से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय आदि भाव अन्तरंग परिग्रह हैं और धन-धन्यादि ब्राह्यपरिग्रह का मूल साधन हिंसा है। परिग्रही वृत्ति से व्यक्ति तभी विमुख हो सकता है जब यह अपरिग्रह या परिग्रह परिमाणव्रत का पालन करे। सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि धर्म आध्यात्मिक साधना को जाग्रत करते रहते हैं और विचारों की पवित्रता को बनाये रखते हैं। इससे मानव संकल्प शक्ति का विकास भी होता है।
जैन संस्कृति भाव प्रधान संस्कृति है इसलिए वहाँ ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष सभी के लिए समान स्थान रहा है। वैदिक संस्कृति में प्रस्थापित जातिवाद की कठोर श्रृंखला को काटकर महावीर ने जन्म के स्थान पर कर्म का आधार दिया, इसने अनुसार जिस व्यक्ति का चरित्र या कर्तृव्य ऊँचा हो, विशुद्ध हो वही उच्च, कुल में उत्पन्न माना जायेगा इसीलिए महावीर ने समानता के आधार पर चारो जातियों की नई व्यवस्था की और उन्हें एक मनुष्य जाति के रूप में प्रस्तुत किया