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श्रमण-संस्कृति मनुष्यजातिरेकैव
कम्मुणा बम्भणो होई, कुम्मुणा होई खत्तियो।
वइस्सो कम्मुणो होई, सुदो होई कम्मुणो।। इसी सामाजिक समता के आधार पर महावीर ने सभी जातियों और सम्प्रदायों के लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया और उन्हें विशुद्ध आचरण देकर वीतरागता के पथ पर बैठा दिया। इसी प्रकार नारी को भी दासता से मुक्त कर उसे सामाजिक समता का ही दर्शन नहीं कराया अपितु निर्वाण प्राप्ति का भी उसको अधिकारी घोषित किया। दास मुक्ति, नारी मुक्ति, जातिभेद मुक्ति के क्षेत्र में जैनियों का अविस्मरणीय योगदान है।
जैन संस्कृति में स्वाध्याय को सर्वोत्तम तप माना गया है। वाचना, पृच्छता, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मकथा के माध्यम से उसे किया जाता है। वाचना, पृच्छता, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मकथा के माध्यम से उसे किया जाता हो उसे धर्म में समाहित किया गया है। जैनागम ग्रंथों में उक्त को एक स्थान पर एकत्रित किया गया है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उल्लिखित परिभाषाओं का सुन्दर सूत्रीकरण आचार्य कार्तिकेय ने किया है। जिसमें स्वाध्यान का रूप प्रतिबिम्बित हुआ हैं
धम्मो वृत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो, रमणत्तयें च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो।।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/478) उत्तरकालीन आचार्यो द्वारा स्वाध्याय के विविध रूपों को भिन्न-भिन्न परिभाषाओं के माध्यम से चित्रित किया गया है किन्तु उन सभी की आधारशिला है- 'अपने लिये वही चाहो जो तुम दूसरों के लिए भी चाहते हो और जो तुम अपने लिये नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी मत चाहो । यही जिन शासन है।' स्वाध्याय के माध्यम से ही यह प्राप्तव्य है।
जं इच्छसि अप्पणत्तो, जंच नं इच्छति अप्पणंतो।
तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं ।। विराट ज्योति को प्राप्त करने में स्वाध्याय सबसे सहयोग तत्व उसके लिए सिद्ध होता है और उसी तत्व से यह परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है