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श्रमण-संस्कृति जिनके पास अपार सम्पत्ति थी। ऐसे श्रेष्ठियों के भी संदर्भ मिलते हैं, जो राजसभाओं के सदस्य होते थे तथा वहाँ की कार्याविधियों में अपना सहयोग प्रदान करते थे।
शूद्रों की अवस्था यद्यपि प्रारम्भिक काल से ही निम्न थी परन्तु फिर भी इस काल में उनको यथोचित सम्मान मिला। इस काल में मात्र सेवाभाव से निकालकर उत्पादन के कार्यों में लगाया गया। विभिन्न शिल्पगत कार्यों को करने वाले कुछ लोग शूद्र के अन्तर्गत ही गृहीत किये गये थे। ऐसी अनेक शूद्र जातियां थीं जो अपने पेशे के कारण विख्यात थीं बुनकर, बढ़ई (तच्चक), लोहार (कुम्मार), दन्तकार, कुम्हार (कुम्भकार) आदि विभिन्न शूद्रीय वर्ग थे। इसके अतिरिक्त शूद्रों की कुछ ऐसी श्रेणियाँ भी बनी जो घूम-घूमकर जीविकोपार्जन करते थे। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि वैदिक रूढ़िवादी परम्परा में बौद्ध धर्म ने आमूल-चूल परिवर्तन किया। इस काल में पूर्व की अपेक्षा निम्नतर जातियों को विकास का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। यही नहीं बुद्ध ने संघ का द्वार भी सभी के लिए खोल दिया जिससे शूद्रों को भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो गया, जो सर्वसमानता की ओर द्योतित करती है।
___ अतः यह कहना अधिक समीचीन है कि गौतम बुद्ध ने ही सर्वप्रथम पूर्व प्रचलित समाज में व्याप्त रूढ़ियों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया जो समाज में सामाजिक विकास को लगभग ठप्प कर चुका था। इस पर उन्होंने अपने विचारों से तीखा प्रहार कर इसे समाप्त करने का प्रयास किया।
बौद्ध धर्म के आगमन के साथ ही साथ भारतीय आर्थिक परिदृश्य में भी परिवर्तन देखने को मिलता है। बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों मे ही अर्थ व्यवस्था में परिवर्तन की झलक दिखाई देती है। सर्वप्रथम बुद्ध के अंहिसा के सिद्धान्त को ही लिया जा सकता है जो पूरी तरह से अर्थ व्यवस्था से सम्बन्धित दिखाई देता है। समाज में व्याप्त वैदिकीय परम्परा के तहत राजसूय यज्ञ एवं अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञ अधिक सम्पादित होते थे, जिसमें पशुधन का एक बड़ा हिस्सा समाप्त कर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त राजमहलों और राजप्रासादों में बनने वाले दैनिक भोजन में भी पर्याप्त संख्या में पशुओं का वध किया जाता