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बौद्ध धर्म का आगमन एवं सामाजार्थिक परिवर्तन
165 इन्हें 'अनस्य बलिकृत' कहा गया है। शूद्र का स्थान समाज में चौथा था। इसका प्रधान कार्य परिचारिकावृत्ति थी। उसके लिए कहा गया है कि उसे विद्या का उपदेश नहीं देना चाहिए। शूद्र का स्थान समाज में अत्यन्त निम्न एवं हेय हो गया था। उसकी जीविका उच्च वर्णों की परिचर्या और शुश्रुषा पर ही निर्भर करती थी।
इस प्रकार बौद्ध धर्म के उद्भव के समय तक समाज में चातुर्वर्ण व्यवस्था का हीनतम रूप प्रस्तुत हो चुका था और सम्भवतः यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में वर्ण व्यवस्था की कड़ी भर्त्सना की गई है। जन्म के स्थान पर कर्म को प्रमुखता दी गई है। ब्राह्मण की प्रतिष्ठा और सम्मान को बौद्ध युग में बड़ा आघात् लगा। बुद्ध ने यह माना कि मात्र उच्च कुल में जन्म लेने ही कोई उच्च नहीं होता बल्कि अपने सत्कर्म, सदाचरण और सच्चरित्रता से ही वह उच्च हो सकता है। अश्वलायन नामक ब्राह्मण को उन्होंने अपना इस प्रकार का मत स्वीकार करने को बाध्य किया तथा कहा कि केवल ब्राह्मण ही स्वर्ग में सुख भोग के सुयोग्य पात्र नहीं होते वरन् पुण्य कर्मो द्वारा क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र भी इसके अधिकारी हो सकते हैं। इसी प्रकार बौद्ध युग में क्षत्रियों को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ माना गया। अन्य वर्णो के साथ उनका उल्लेख सर्वप्रथम है। बुद्ध ने ब्राह्मण अम्बष्ठ से कहा- 'क्षत्रिय ही श्रेष्ठ है, ब्राह्मण हीन।"
वैश्य वर्ण के लिए बौद्ध साहित्य में वेस्स', 'सेट्टि', 'कुटुम्ब्कि' आदि शब्द मिलते हैं। गहपति शब्द का उल्लेख ब्राह्मण-क्षत्रिय के लिए भी किया जाता था। किन्तु बौद्ध काल में केवल वैश्य के लिए इसका प्रयोग किया गया है। वस्तुतः वैश्य वर्ण उस युग का सर्वाधिक समृद्धशाली और सम्पन्न वर्ग था। 'सेट्टि' अथवा 'सेठ' के साथ ही साथ वह 'बैंकपति' और 'सार्थवाह' भी था। प्रायः नगर में निवास करने वाले व्यापारी 'कुटुम्बिक' होते थे, जो धान्य का क्रय-विक्रय किया करते थे। इसके अतिरिक्त वे रूपयों का व्यवहार भी करते'' एवं कृषि भी किया करते थे। ___'सेट्टि' अथवा 'श्रेष्ठि' इस वर्ग का धनी व्यक्ति था, जो अपने व्यापार एवं वाणिज्य के कारण प्रमुख था। वह समय-समय पर राजा एवं श्रेणियों की सहायता भी करता था।” इन श्रेष्ठियों में अनाथपिण्डक एवं घोषक प्रमुख थे,