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श्रमण-संस्कृति नामों से मेल नहीं करता है। इस ग्रन्थ में वाद्य यंत्रों के तत्त (वीणा), वितत (पटह), धन (कांस्यतालादि) और बांसुरी आदि को झुसिर वाद्य कहा गया है।
जैन ग्रन्थों में वाद्यों की एक लंबी सूची मिलती है जो अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है। संस्कृत ग्रन्थों में वाद्य के लिए आतोद्य, तूर, तूर्य, वादित्र और वाद्य शब्द मिलते हैं। जैन ग्रन्थ अधिकतर प्राकृत में है। उनमें 'आतोद्य' के लिए आउज्ज अथवा आओज्ज शब्द मिलता है। 'तूर' के लिए प्राकृत में भी 'तूर' शब्द ही मिलता है। तूर्य' के लिए 'तुज्ज' और 'तुरिय' शब्द मिलते हैं। 'वाद्य' के लिए 'वज्ज' शब्द मिलता है और 'वादित्र' के लिए 'वाइत्त ।'
जैन वाङ्गमय में कई ग्रन्थों में वाद्यों का नाम आते हैं, किन्तु वाद्यों की सबसे लंबी सूची 'रायप्पसेणइज्ज' में मिलती हैं। यह ग्रन्थ पहली ईसवी शती तक तैयार हो गया था।" इस ग्रन्थ में वाद्यों के चार प्रकार इस प्रकार बताये गये हैं - ततं, विततं, घणं और झुसिर। अन्य ग्रन्थों में झुसिर के स्थान पर 'सुसुर' शब्द प्रयुक्त हुआ है। संस्कृत ग्रन्थों में वाद्यों के लिए तत्, अवनद्ध, धन और सुषिर' प्रकार दिए हुए हैं, उन्हीं के जैन ग्रन्थों में प्राकृत नाम आया है। 'तत' दोनों में समान रूप से आया है। अवनद्ध' के स्थान पर जैन ग्रन्थों में प्रायः 'वितत' शब्द प्रयुक्त हुआ है। कहीं-कहीं संस्कृत ग्रन्थों में भी 'वितत' शब्द अवनद्ध वाद्य के लिए प्रयुक्त हुआ है। 'घण', 'घन' शब्द का रूपांतर है। 'झुसिर' अथवा 'सुसुर' 'सुषिर' शब्द का विकृत रूप है। वितत' के स्थान पर उन ग्रन्थों में कहीं-कहीं 'आतत' शब्द भी देखने को मिलता है। ___'रायप्पसेणाइज्ज' में वाद्यों के सूची 18 वर्गों में दी गयी है। इस वर्गों में कुछ 63 वाद्य हैं। प्रत्येक वर्ग के विषय में यह.बतलाया गया है कि उस वर्ग के वाद्यों का किस प्रकार प्रयोग होता है। अन्य जैन ग्रन्थों में भी वाद्यों का उल्लेख मिलता है। तीसरी ई० शती में लिखित दक्षिण में 'तिवाकरम्' नाम का एक जैनकोश मिलता है। इसमें दक्षिण भारत के प्राचीन संगीत पर कुछ सामाग्री मिलती है। इसमें दो प्रकारों के रागों का उल्लेख है - पूर्ण और अपूर्ण । सात स्वरों के रागे को पूर्ण तथा पांच या छह स्वरों के राग को अपूर्ण कहा गया है। इस ग्रन्थ में 22 श्रुतियों का भी उल्लेख है। सात स्वरों के तमिल नाम भी दिये