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संगीत कला को समृद्ध करने में जैनधर्म का योगदान
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गये हैं। दक्षिण भारत की संगीत की दशा को समझने के लिए यह ग्रन्थ अनिवार्य हैं ।"
कुछ जैन संगीतज्ञों ने इस कला पर स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे हैं, जैसे सुधाकलश ने संगीतोपनिषत्सारोद्धार, पार्श्वदेव ने 'संगीतसमयसार' मण्डन ने 'संगीतमण्डन' आदि । इन ग्रन्थों में संगीत के समस्त तत्वों का विशद वर्णन किया गया है। संगीत के तत्कालीन स्वरूप को जानने के लिए उपयुक्त ग्रन्थ बहुत उपयोगी हैं। इस ग्रन्थों में आये हुए पारिभाषिक शब्द वर्तमान में भी प्रचलित हैं। 'संगीतोपनिषत्सारोद्धार' एवं 'संगीतसमयसार' ग्रन्थ वर्तमान में प्रकाशित हो चुका है जबकि संगीत मंडन ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारतीय संगीत को समृद्धशाली एवं विकसित करने में जैनियों का महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय स्थान है।
संदर्भ
1. पांडेय, डॉ० राजेन्द्र, भारत का सांस्कृतिक इतिहास, पृ० 74-75 2. सिंह, डॉ० ठाकुर जयदेव, भारतीय संगीत का इतिहास, पृ० 246
3. परांजपे, डॉ० शरच्चन्द्र श्रीधर, भारतीय संगीत का इतिहास, पृ० 229
4. थानांगसुत्त, 9, 678, नायाधम्म, 1, पृ० 21, समवायांग, पृ० 77, ओवाइया, 40, रायपसेणइयसुत्त 211 आदि ।
5. तुलनार्थ द्र० बौद्ध ग्रन्थ 'मिलिन्दपन्ह ।'
6. परांजपे, डॉ० शरच्चन्द्र श्रीधर, भारतीय संगीत का इतिहास, पृ० 179
7. वही, पृ० 186
8. वही, पृ० 187
9. सिंह, डॉ० ठाकुर जयदेव सिंह, भारतीय संगीत का इतिहास, पृ० 248 10. परांजपे, डॉ० शरच्चन्द्र श्रीधर, भारतीय संगीत का इतिहास, पृ० 185 11. नारदी शिक्षा के अनुसार -
कण्ठादुत्तिष्ठते षड्जः शिरसस्त्वृषभः स्मृतः ।
गान्धारस्त्वनुनासिक्य उरसो मध्यमः स्वरः ।। 1, 5, 6।। उरसः शिरसः कण्ठादुल्यितः पंचमः स्वरः । लालाटाद्धैवतं विद्यान्निषादं सर्वसन्धिजम् । 1, 5, 7 11
12. परांजपे, डॉ० शरच्चन्द्र श्रीधर, भारतीय संगीत का इतिहास, पृ० 186
13. शर्मा, भगवत शरण, भारतीय इतिहास में संगीत, पृ० 15
14. सिंह, डॉ० ठाकुर जयदेव, भारतीय इतिहास में संगीत का इतिहास, पृ० 248