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संगीत कला को समृद्ध करने में जैनधर्म का योगदान
147 षड्ज ध्वनि मयूर की है, ऋषभ कुक्कुट (मुर्गा), गान्धार हंस की, मध्यम गौओं की, पंचम कोकिला की, धैवत क्रौंच की तथा निषाद सारस पक्षी की ध्वनि है।
सज्जं रवई मयूरो ककुमो रिसभं स्वरम्। हंसो णदइ गंधारं मज्झिमं तु गवे लगा।। अट्ट कुसभसंभवे काले कोइला पंचमं सरम्।
छठं च सारसा क्रौचा णेसायं सत्तर्मगन।। स्वरों की तारता का पशु पक्षी की ध्वनि से निर्धारण करने की यह प्रक्रिया संगीत की उस अवस्था का परिचायक है, जिस समय कोई स्थिर आधार स्वर नहीं था। इसमें संदेह नहीं कि यह एक बहुत स्थूल ढंग था, किन्तु यह सर्वथा हेय नहीं था।
सुत्तकार ने किस स्वर के साधनों से क्या प्राप्त होता है, इस पर भी प्रकाश डाला है। जैसे षड्ज के साधनों से घन, गौ, मित्र और पुत्र की प्राप्ति होती है। साधक का नाश नहीं होता और स्त्रियों का प्रिय, बनता है। ऋषभ को साधने से ऐश्वर्य, सेनापति का पद, धन, वस्त्र, अलंकार आदि की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार गान्धार को साधने से हृदय में कला ज्ञान होता है इत्यादि। इसके बाद तीन ग्राम, एक-एक ग्राम की सात-सात मूर्च्छनाएं, उनके नाम पर प्रकाश डाला गया है।
इसमें तीन ग्राम और उसकी मूर्च्छनाओं का नाम इस प्रकार दिया गया है - सज्जगाम (षड्जग्राम) की निम्नलिखित मूर्च्छनाएं बतलाई गयी हैं - (1) मंगी, (2) कोरव्वीया, (3) हरि, (4) रयतणी, (5) सारकंता, (6) सारणी, (7) सुद्धसज्जा।
मज्झिमगम, (मध्यमग्राम) की मूर्च्छनाएं इस प्रकार की गयी हैं - (1) उत्तरमंदा, (2) रयणी, (3) उत्तरा, (4) उत्तरासमा, (5) आसोकंता, (6) सोवीरा, (7) अभिरूद्धा। गान्धारग्राम की ये सात मूर्च्छनाएं हैं - (1) णंदी, (2) खुद्दिमा, (3) पूरिमा, (4) सुद्धगंधार, (5) उत्तरगंधार, (6) आयाम, (7) उत्तरायता । मूर्च्छनाओं के नाम सुत्तकार के अपने मत का अन्य किसी मत से दिये हैं, यह स्पष्ट नहीं होता क्योंकि भरत या नारद के मूर्च्छनाओं के