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जैन धर्म में यक्षिणियाँ
135 प्रतीत होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन धर्म में ब्राह्मण देवकुल के विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्द, कार्तिकेय, काली, गौरी, सरस्वती, चामुण्डा और बौद्ध देवकुल की तारा, वज्रश्रृंखला, वज्रतारा एवं वज्राकुंशी के नामों और उनकी लाक्षणिक विशेषताओं को ग्रहण कर लिया गया है। जैन देवकुल पर ब्राह्मण और बौद्ध देवकुलों का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। चक्रेश्वरी, विजया, निर्वाणी, तारा एवं वज्रश्रृंखला जैसे कुछ प्रमुख यक्षणियों पर उपरोक्त प्रभाव दिखलाई पड़ता है।
छठी शती ई० में अकोटा में नेमिनाथ के अम्बिका यक्षी के निरूपण के बाद पार्श्वनाथ के पद्मावती यक्षी की मूर्तियों का निर्माण किया गया। लगभग 10वीं शती ई० में अन्य यक्षियों की मूर्तियों का भी निर्माण किया जाने लगा। लगभग छठी शती ई० में जिन मूर्तियों की पीठिका पर और नवीं शती ई० में स्वतन्त्र मूर्तियों के रूप में यक्षिणियों की मूर्तियों का निर्माण किया जाने लगा। लगभग 10वीं शती ई० से ऋषभनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर के साथ सर्वानुभूति एवं अम्बिका के स्थान पर स्वतंत्र लक्षणों वाले यक्ष यक्षी युगलों का निरूपण आरम्भ हुआ। इसके मुख्य उदाहरण देवगढ़, ग्यारसपुर, मथुरा, खजुराहो एवं राज्य संग्रहालय लखनऊ में देखने को मिलते हैं।
स्वतंत्र अंकनों में पक्षिणियां यक्षी मूर्तियों की तुलना में कहीं अधिक लोकप्रिय लगती हैं। 24 यक्षियों के सामूहिक अंकन के तीन उदाहरण देखने को मिलते हैं। पहला उदाहरण देवगढ़ मन्दिर 12, 862 ई० से देखने को मिलता है। यहाँ से प्राप्त 24 यक्षियों की मूर्तियों में त्रिभंग में खड़ी यक्षियों के नाम भी उत्कीर्ण किये गये हैं। देवगढ़ के उदाहरण में अम्बिका के अतिरिक्त अन्य किसी यक्षी के निरूपण में जैन शास्त्रों में उल्लिखित निर्देशों का पालन नहीं किया गया है। देवगढ़ समूह की यक्षिणयों के दो उदाहरणों में सरस्वता और मयूरवाहिनी नामों वाली यक्षियां भी उकेरी गयी हैं। देवगढ़ से प्राप्त यक्षियों के उदाहरण में प्रत्येक जिन के साथ एक यक्षी की कल्पना की गयी है परन्तु अम्बिका के अतिरिक्त अन्य किसी भी यक्षी की स्वतंत्र लाक्षणिक