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श्रमण-संस्कृति
विशेषताएं निश्चित न होने के कारण यक्षिणियों के निरूपण में महाविद्याओं एवं सरस्वती के लाक्षणिक स्वरूपों का ही अनुकरण किया गया है। 7
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दूसरा उदाहरण पतियानदाई मन्दिर (सतना, म० प्र०) की अम्बिका मूर्ति से मिलती है यह मूर्ति लगभग 11वीं शती ई० की प्रतीत होती है । इसमें 23 यक्षिणियों की चतुर्भुज आकृतियां अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। स्वतंत्र लक्षणों वाली इन यक्षियों के साथ इनके नाम भी उत्कीर्ण किये गये हैं । यहाँ से प्राप्त यक्षिणियों के नामों और लक्षणों के आधार पर विद्वान इनका समीकरण दिगम्बर परम्परा के साथ करते हैं । "
24 यक्षियों के सामूहिक अंकन का तीसरा उदाहरण बारभुजी गुफा (खण्डगिरि, उड़ीसा) से प्राप्त होता है इसको 11वीं 12वीं शती ई० का माना जाता है यहाँ भी सम्बन्धित जिनों के साथ उनकी यक्षियों की कल्पना की गयी है परन्तु उनके नाम अंकित नहीं मिलते। ध्यातव्य है कि यहाँ से प्राप्त 24 यक्षिणियों में केवल चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं पद्मावती के निरूपण में ही शास्त्रीय परम्परा का अंशतः पालन किया गया है। कुछ यक्षिणियों जैसे चक्रेश्वरी, अजिता, ज्वालामालिनी, पद्मावती की दो से 20 भुजाओं वाली मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जो हिन्दू धर्म की दुर्गा, काली आदि मूर्तियों के सदृश दिखाई देती हैं । "
गोरखपुर जनपद और उसके आस पास श्री कृष्णानन्द त्रिपाठी को टूटे सिर वाली अनेक यक्ष यक्षी प्रतिमा मिली हैं। कोसल के कपिलवस्तु, श्रावस्ती, साकेत और वाराणसी में यक्ष यक्षी पूजा के अनेक उल्लेख मिलते हैं । यक्ष यक्षिणियों की पूजा बस्ती, खलीलाबाद के लहुरादेवा जैसे स्थलों पर प्रचलित दिखाई देती हैं। उल्लेखनीय है कि बस्ती जिले की सीमा मखवाड़ या यक्षस्थली कहलाती है जहाँ राजा दशरथ ने पुत्रकामेष्टि यज्ञ किया था। यह मनोरमा के तट पर स्थित है मनोरमा नदी का प्राचीन नाम है जो सरयू में मिल जाती है । यहाँ श्रृंगी ऋषि का श्रृंगी नारी स्थल भी है। मखौड़ा अर्थात् कामेष्टि यज्ञ स्थल जहाँ रामायण के अनुसार तीनों रानियों ने पुत्रेच्छा से फल खाया था। आज भी चैत्र पूर्णिमा पर यहाँ यज्ञ सम्पन्न होता है। ध्यातव्य है कि यह स्थल सरयू नदी के