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________________ जैन देवियां एवं तत्सम्बन्धी जैन रचनाएं 63 ढालीया देव गुण सयल ढीच, भेड गिद्ध भिड़इ दाणवी भीच । ऊससइ षसइ निहसइ अपार, धड़हड़ सूर धगधगइ धार ।। निहसिया निवड़ वाजानि वीट, रिण माहि रूक बापरह रीठ ।।" _ (कुशललाभ : महामाई दुर्गासातसी, छंद 89-91) जहां इन जैन कवियों ने देव-कल्याण हेतु देवी के वीर, भयानक, रौद्र, वीभत्स रूपों का वर्णन प्रस्तुत किया है, वहां इनकी शैली चारणी (डिंगल) शैली के निकट आ गई है। इन वर्णनों में द्वित्त गुणों की प्रधानता एवं प्रसंगानुकूल वर्णनों का स्वाभाविक तथा प्रभावोत्पादक चित्रण हुआ है । जयचंद यति की माताजी री वचनिका का चण्डमुण्ड पर देवी द्वारा आक्रमण एवं युद्ध का वर्णन द्रष्टव्य है चढे प्रचण्ड चण्ड मुण्ड खंड-खंड खूदना । कसीस त्रीस टंक बांण क्रग झालि कूदता। जकन्त जाप रोस जे कठोर काजि काहलां, करंति देव मेछ कौटि डाको खळां उळां ।। भखै सहूं भुजा लहूं बणै जबांत बाकवां । करंति देव मेछ कौटि डाकरे, खळा डळां ।। मंडे पिलांण कोडियं केकाण मोल ऊचरा । करै सनाह कंठ लीधै सार सैन धूमटा। चढ़े कढै अणी चढे विवाण ढूक बादळां । करंति देव मेछ कोटि डाकरे खळां डळां ।। इस प्रकार जैन देवी-भक्ति सम्बन्धी रचनाएं प्रायः लघु आकार के स्तोत्र हैं। उपलब्ध जैन देवी-भक्ति सम्बन्धी रचनाओं में कुशललाभकृत “महामाई दुर्गा सातसी" एवं यति जयचंद्र कृत “माताजी री वचनिकाओं का ही आकार अपेक्षाकृत वृहद् हैं। इनमें अन्य लघु रचनाओं की तुलना में गुजराती का प्रभाव कम लक्षित है। साथ ही ये रचनाएं जैन एवं चारणी शैली का समन्वय करती हुई दिखाई देती है। वस्तुतः संपूर्ण जैन संस्कृति ही भारतीय चिंतन पर आधारित है, अतः समन्वय साधना उसका मूल है । यही समन्वय उसका “शम” है। इन जैन देवी-भक्ति-सम्बन्धी रचनाओं में देवी की कल्याण भावना जैन साहित्य को नव आयाम देता है। इनमें चित्रित वीर भावना श्रमण संस्कृति का प्रमुख अंग है । इस प्रकार देवीपरक रचनाओं में जैन एवं जैनेत्तर रचनाओं में कोई तात्विक भेद नही माना जाना चाहिए।
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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