SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजस्थानी की जैन-प्रेमाख्यानक रचनाएं 39 इस प्रकार इस रचना का अन्त सुखान्त है। अन्य जैन-प्रेमाख्यानों के समान निजन्धरी अन्तर्कथाओं का भी प्रयोग कम हुआ है । पर बर्तमान की ज्वलन्त समस्या स्त्री-पुरुषों की समानता के प्रश्न से भी अवगत कराती है। यही साहित्य का चिरन्तन सत्य है। अतः सोच की दृष्टि से इस प्रेमाख्यान का महत्व है। इसी समस्या का उद्घाटन महामहोपाध्याय समयसुन्दर की प्रेमाख्यानक कृति पुण्यसार चौपई (वि.सं.1673)' में भी हुआ है। 7. सिंहल सुत चौपई__मध्यकालीन राजस्थानी जैन साहित्य-मण्डल में महामहोपाध्याय समयसुन्दर का भी उल्लेखनीय स्थान रहा है । कुशललाभ की भांति ही समयसुंदर ने भी जैन एवं जैनेतर चरित्रों से सम्बन्धित प्रेमाख्यान लिखे । मृगावती आख्यान सूफी कवियों की प्रमुख विषयवस्तु रही है किन्तु कवि ने इसी आख्यान को जैन शैली में प्रस्तुत कर और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है । राजा सातनीक की मृत्यु के उपरान्त मृगावती का वैराग्य धारण करना एवं उससे प्रेरित हो चण्डप्रद्योत द्वारा संयमव्रत धारण करना इस कथा में कवि समयसुंदर की मौलिकता का प्रमाण है ।2 आलोच्य रचना “सिंहलस्त चौपई" का सृजन समयसुंदर ने वि.सं. 1672 में मेड़ता में किया। यह ग्यारह ढालों में रचित एक सरस प्रेमाख्यानक रचना है जिसमें कवि ने सिंहलद्वीप के राजकुमार सिंहलकुमार और धनवती की प्रेम कथा का निरुपण किया है। संक्षेप में कथा इस प्रकार है सिंहलद्वीप का रूपवान और वीर राजकुमार सिंहल वसंत ऋतु में भ्रमण के लिये निकला तो उसने जलक्रीड़ा निमित्त आई नगर-सेठ की कन्या धनवती को हाथी के चंगुल में देखा । अपनी बहादुरी से उसने धनवती को हाथी से मुक्त किया। दोनों में प्रेम हो गया और विवाह कर लिया। प्रस्थान करते समय राजकुमार समुद्र की उत्ताल तरंगों में गुम गया और धनवंती प्रियमेलक नामक तीर्थ पर पहुंच गई। वह अपने प्रिय सिंहलसिंह के मिलन हेतु मौन तप में लीन हो गई। उधर सिंहलसिंह रतनवती नगरी में पहुंचा तो राजकुमारी रतनवती को सर्प के विष से मुक्त कर देने पर उसके पिता रत्नप्रभ ने उसका विवाह सिंहलसुत के साथ कर दिया। 1. सं. भंवरलाल नाहटा-समयसुंदर रास पंचक 2. (क) सं. भंवरलाल नाहटा–समयसुंदर रास पंचक (ख) रा.प्रा.विप्र.जोधपुर,ह.पं.
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy