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________________ जैन-साहित्य में अगड़दत्त कथा-परम्परा एवं कुशललाभ कृत अगड़दत्तरास 97 नेमिचन्द-विरचित "उत्तराध्ययन वृत्ति” में कवि ने अगड़दत्त को दीक्षा देने वाले ऋषि का नाम चारण ऋषि दिया है ।। 9. शिल्प विधान भीम का अगड़दत्त रास पांच खण्डों में विभक्त है, जिनमें कुल 480 छंद (दूहा-चौपई) है । कुशललाभ ने ऐसा शिल्प ग्रहण नहीं किया है। उसने तो अन्य पूर्ववर्ती कवियों के शिल्प को ही अपनाया है। साथ ही उसने वसुदेव-हिण्डी, भीम, सुमति आदि की भांति काव्य में विस्तृत प्राकृतिक वर्णनों एवं नख-सिख-वर्णन को भी महत्व नहीं दिया है। उसने सरस्वती की आरंभ में वंदना तो की है पर धार्मिक दृष्टि का ही उसमें आचरण है । उक्त अध्ययन के उपरान्त हम कुशललाभ की अगड़दत्त कथा में अन्य पूर्ववर्ती कथाओं के साथ निम्नलिखित साम्य एवं वैषम्य का अनुभव करते हैंसाम्य1. अगड़दत्त रूपवान नायक है, जिस पर प्रत्येक नारी आसक्त है ! उपाध्याय (गुरु) ने उसे माता-पिता की आज्ञा-पालन का आचरण दिया। 3. परिव्राजक चोर का पता सात दिनों में लगा लाने तथा मदमस्त हाथी को वश में करने का बीड़ा अगड़दत्त ही उठाता है। छह दिन तक भटकने के उपरान्त सातवें दिन परिव्राजक रूप में चोर को वह ढूंढ लेता है और उसको मारकर राजा के समक्ष उपस्थित होता है । राजा उक्त दोनों साहसिक कार्यों के बदले अगड़दत्त का विवाह अपनी पुत्री से करता है। मार्ग की कठिनाइयां एवं उन पर अगड़दत्त की विजय प्राप्ति । विद्याधर द्वारा नायिका को जीवित करना तथा नारी की कुटिलता का अगड़दत्त को प्रतिबोध कराना। देवस्थल पर चोरों के साथ नायिका का प्रणय एवं अगड़दत्त पर खड्ग-प्रहार तथा चोरों का दीक्षित होना । 9. रमणोपरान्त अगड़दत्त का दीक्षित होना । 1. डॉ. जे. सी. जैन - प्राकृत जैन कथा साहित्य, पृ. 169-170
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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