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28 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
वेदों में अधिकांशतः जैन श्रमणों के लिए व्रात्य शब्द प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद के पन्द्रहवें काण्ड के पूरे प्रथम अनुवाक में व्रात्य के गुण- सामर्थ्य का विवेचन किया गया है। यथा -
"व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समैरयत्॥"100 अथर्ववेद - काण्ड 5, अणुवाक 4, सूक्त 19, सूत्र 7 अर्हन का उल्लेख -
“अष्टापदी, चतुरक्षी चतुःश्रोता चतुर्हनः। द्वयास्य द्विजिद्वा भूत्वा साराष्ट्रमव धुनूते ब्रह्मज्यस्य॥" सामवेद में भी पृथक्-पृथक् स्थानों पर कई जैन तीर्थंकरों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण विवेचन मिलता है। सर्वाधिक स्तुति प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान की की गई है। उनके लिए वृषभो, वृषभः, वृषभं, रिषमो आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। उन्हें सामर्थ्यवान परमेश्वर कहा है। सकल मनोरथ पूर्ण करने वाले बलशाली और सूर्य के समान तेजस्वी कहा है। यथा -
_ 'सहस्रधारं वृषभं पयोदुहं प्रियं देवाय जन्मने।104
अर्थात् अनेक प्रकार की वाणियों वाले, सकल मनोरथ पूरा करने वाले, ज्ञान का दोहन करने वाले प्रिय ऋषभदेव जन्मे।
ऋषभदेव भगवान के अतिरिक्त मुख्य रूप से नेमिनाथ भगवान की स्तुति सामवेद में की गई है। उन्हें कहीं नेमि, कहीं अरिष्टनेमि और कहीं आंङ्गिरस नाम से नमन किया गया है। यथा --
“दधन्वेवायदी मनु वोचद् ब्रह्मेति वेरुतत्। परिविश्वानि काव्या नेमिश्चक्रमिवाभवत्॥mes
नेमिं नमन्ति चक्षसा मेषं विप्रा अभिस्वरे॥ "न्यमूषुवाजिनं देवजूतं सहोवानं तरुतारं रथानाम्।
अरिष्टनेमि पृतनाजमाशुं स्वस्तये ता_मिहाहुवेम॥17
आंङ्गिरस या अंङ्गिरो भी नेमिनाथ का ही एक नाम है, जो वेदों में बहुत मिलता है। अंङ्गिरो का वर्णन भी परमेश्वर के रूप में ही किया गया है।
जैन तीर्थंकरों के लिए एक विशिष्ट शब्द अर्हत् प्रयुक्त किया जाता है। सामवेद में ऋषभदेव को अर्हत् कहा है। यथा -
"इमम् स्तोममर्हते जातवेद से रथमिव संमहेमा मनीषया। भद्रा हिनः प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयंतव॥109
यजुर्वेद में भी तत्कालीन समाज में जैन धर्म-दर्शन तथा संस्कृति के प्रचलन के अनेक प्रमाण विद्यमान हैं। विविध रूपों में जैन तीर्थंकरों का उल्लेख एवं स्तुति की गई है। यद्यपि 24 तीर्थंकरों का क्रमबद्ध विवेचन नहीं है। इसमें भी सर्वाधिक स्तुति