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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता 29 ऋषभदेव भगवान की ही की गई है। " तीर्थंकर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम इस सिद्धान्त का उद्घोष किया था, कि मनुष्य अपनी शक्ति का विकास कर आत्मा से परमात्मा बन सकता है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा विद्यमान है। जो आत्मसाधना से अपने देवत्व को प्रकट कर लेता है, वह परमात्मा बन जाता है। यह इस लोक में स्पष्ट परिलक्षित होता है 79111 " चत्वारि श्रङ्गा त्रयोऽअस्य पादा द्वेशीर्षे सप्त हस्तासोऽअस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश ॥' अर्थात् जिसके चार श्रंङ्ग (अनन्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं वीर्य) हैं, तीन पाद (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) हैं, दो शीर्ष ( कैवल्य और मुक्ति ) हैं, और सात हस्त (सात व्रत हैं) तथा जो मन, वचन और काय- इन तीन योगों से बद्ध (संयत) हैं, उस वृषभ (ऋषभदेव) ने घोषणा की है, कि महादेव (परमात्मा) मनुष्य के भीतर ही आवास करता है । ऐसा ही उल्लेख जैन ग्रन्थ परमार्थ प्रकाश में आया है, कि 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है । यह दार्शनिक सिद्धान्तों का साम्य यह सिद्ध कर देता है, कि ऋग्वेद में आया उल्लेख जैन संस्कृति को ही प्रकाशित करता है । भगवान ऋषभदेव के साथ अ० 20 में लोक 1 व 9 में उनके पिता नाभि का भी उल्लेख है। सभी स्थानों पर ऋषभदेव का वर्णन उत्कृष्ट एवं बलशाली व्यक्तित्व के रूप में किया गया है। यजुर्वेद में अनेक स्थानों पर पाँचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ की सत्य आराधक के रूप में स्तुति की गई है । यथा - चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतिनाम् । यज्ञं दधे सरस्वती ॥' 112 - 9713 114 'देवस्य चेततो महीम्प्रसवितु हेवा महे। सुमर्तिं सत्यराधसम ॥' सुष्ट सुमति वृधो रर्तिं सवितुरीमहे । प्रदेवाय मतीविदे ॥' यजुर्वेद में सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ जी को संपूर्ण विश्व में व्यापक एवं रक्षक आराध्य कहा गया है। यथा " द्योः शान्तिरत्नरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधायः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्ति रेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥' 99115 वेदों में एक और सर्वाधिक पूज्य तीर्थंकर तार्क्ष्य अरिष्टनेमि या आंङ्गिरस की स्तुति की गई है । यथा अयमुत्तरात् संयद्व सुस्तस्य तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च सेनानीग्रामण्यौ । “
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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