________________
जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता 27
अनुयायियों में वैश्य अधिक रहे हैं । उन्होंने यज्ञोपवीत के अभाव में पौंड्रक, द्रविड़, अम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दरद एवं खश सभी को शूद्र कहा है, चाहे वे आर्य भाषा वाले या म्लेच्छ । मनु उन्हें दस्यु ही कहते हैं ।" बहुत संभव है, कि ये सभी जातियाँ उस समय जैन धर्म की अनुगामी रही हों ।
अतिरिक्त वेदों में भी जैन संस्कृति की
रामायण, महाभारत, मनुस्मृति के विद्यमानता के अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं।
अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अलग-अलग तीर्थंकरों का नामोल्लेख तथा उनका गुणगान किया गया है। कई स्थानों पर जैन आगमिक शब्दावली भी मिलती है, जो वैदिक संस्कृति से मेल नहीं खाती।
अथर्ववेद में अरिष्टनेमि को कृष्ण का गुरु घोर आंङ्गिरस कहा है ।" आंङ्गिरस शब्द का उल्लेख हुआ है। उन्हें ज्ञान फैलाने वाले के रूप में प्रकाशित किया गया है।
यथा -
193
" इदं प्रापमुत्तमं काण्डमस्य यस्माल्लोकात् परमेष्ठी समाय । आसिञ्च सर्पि धृतवत् समध्येय भागो आङ्गिरसो न अत्र ॥' यहाँ आंङ्गिरस के साथ परमेष्ठी शब्द प्रयुक्त हुआ है, जो जैनों का शब्द है । अर्थात् आंङ्गिरस जैन संस्कृति के प्रसारक थे । ब्राह्मण संस्कृति में परमेश्वर शब्द प्रयुक्त होता है।
ऋषभ तथा मरीचि का उल्लेख भी है यथा -
"सूर्यस्य रश्मीननु याः संचरन्ति मरीचार्वा या अनुसंचरन्ति । या सामृषभो दूरतो वाजिनीवान्त्सद्यः सर्वान् लोकान् पर्यंति रक्षम् । स न ऐतु होममिमं जुषाणो इन्तरिक्षेण सह वाजिनी वान् ॥
1994
यहाँ यह ज्ञातव्य रहे, कि जैन शास्त्रों के अनुसार मरीची के भव में ही भगवान महावीर के जीव ने तीर्थंकर गौत्र का बन्ध किया था।
इसके अतिरिक्त नवम् काण्ड के सूक्त 4 में तो ऋषभदेव का परमेश्वर के रूप में विस्तृत रूप से गुणगान किया गया है।" आगे लोक 12 में पार्श्व नाम का भी उल्लेख हुआ है।"
1197
अथर्ववेद में आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु (चन्द्राय) तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ तथा चौबीसवें वर्धमान (महावीर) को नमन किया गया है। उनके उद्धरण इस प्रकार है - "दिक्षु चन्द्राय, समनमन्त्स आर्ध्नोत् । यथा दिक्षु चन्द्राय समनमन्नेवा मह्यं संनमः संनमन्तु ॥ ' नमो नमस्कृताभ्यो नमः संभुञ्जतीभ्यः ।" व्याघ्रेऽहृयजनिष्ट वीरो नक्षत्र जा जायमानः सवीरः । समावधीत् पितरं वर्धमानो मामातरं प्रमिनीज्जनित्रीम ॥”
99