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सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव 153
के मूलगुण - मद्यत्याग, मांसत्याग, मधु त्याग एवं पाँच उदम्बर फलों का त्याग कर सदाचरण ग्रहण करता था तथा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि पाँच पापों का त्यागकर सदाचारमयी प्रवृत्ति को अपनाता था । व्रतावरण क्रिया का उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास करना है। जिसने श्रुत के अभ्यास द्वारा अपनी बुद्धि को निर्मल बना लिया हैं, ऐसा व्यक्ति मूलगुण और उत्तरगुणों के द्वारा अपनी आत्मा को निर्मल बनाकर समाज का योग्य सदस्य बनता है । वह अन्याय से धनार्जन नहीं करता और न्याय पूर्वक आजीविका का सम्पादन करता हुआ सांसारिक कार्यों को सम्पन्न करता है । ब्रह्मचर्य धारण करते समय जिन शारीरिक वस्त्राभूषणों एवं पदार्थों का त्याग किया था, उनका गुरु आज्ञा से पुनः सेवन प्रारम्भ कर दिया जाता था ।
शिष्य, शिक्षक एवं उनका पारस्परिक सम्बन्ध : विद्याध्ययन के लिए शिष्य का योग्य होना एवं शिक्षक का विद्वान् होना आवश्यक है । अपात्र को शिक्षा देने का कितना ही प्रयास किया जाए सब व्यर्थ है । क्षयोपशमजन्य प्रतिभा के साथ अध्यवसाय भी आवश्यक है । प्रतिभाशाली छात्र भी यदि आलस्य और विलासिता में डूबा रहे, तो वह कदापि विद्वान् नहीं बन सकता है। विद्यार्थी जीवन में इस प्रकार का अभ्यास करना चाहिये, जिससे शेष जीवन भी सुखी हो सके। परिश्रम, लगन और उत्साह के साथ प्रतिभा का होना भी आवश्यक है। जैन शास्त्रों में विद्यार्थी की निम्नलिखित मौलिक योग्यताओं का प्रतिपादन किया गया है।
1. जिज्ञासावृत्ति ।
2. श्रद्धा - अध्ययन एवं अध्यापक दोनों के प्रति आस्था ।
3. विनयशीलता ।
4. श्रवण - पाठ श्रवण के प्रति सतर्कता एवं जागरुकता ।
5. शुश्रुषा - गुरुजनों के प्रति सेवाभावी होना ।
6. ग्रहण - गुरु द्वारा अध्यापन किये गये विषय को ग्रहण करने की अर्हता ।
7. धारण - पठित विषय को सदैव स्मरण रखने की क्षमता ।
8. स्मृति - स्मरण शक्ति ।
9. ऊह - तर्कणाशक्ति ।
10. अपोह - पठित ज्ञान के आधार पर विचार शक्ति का प्राबल्य व अकरणीय
का त्याग।
11. निर्णीती - युक्तिपूर्वक विचार करने की क्षमता ।
12. संयम ।
13. प्रमाद का अभाव ।
14. क्षयोपशम शक्ति-सहज प्रतिभा ।
15. अध्यवसाय - अध्ययन के लिए प्रयास ।