________________
152 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
हैं। इसके पश्चात् बालक को स्वर, व्यञ्जन, संयुक्ताक्षर, योगवाह, महाप्राण, अल्पप्राण, घोष, अघोष आदि का अभ्यास करना होता है। वर्ण ज्ञान, अंकज्ञान एवं सामान्य गणित ज्ञान प्राप्त करने के लिए तीन वर्ष का कार्यकाल निश्चित है, तत्पश्चात उपनीति क्रिया सम्पादित की जाती है।
लिपि संख्यान प्रारम्भ करते समय “सिद्धं नमः” इस मंगलवाची मातृका मन्त्र का अवश्य उच्चारण करना चाहिये। क्योंकि मातृका अस्तित्व समस्त विद्याओं और शास्त्रों में विद्यमान है। इसी से अनेक संयुक्ताक्षरों की उत्पत्ति होती है, जो बीजाक्षरों में व्याप्त हैं। आकार से लेकर हकार पर्यन्त स्वर-व्यञ्जन, विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय सहित वर्णमाला का अभ्यास करना चाहिये।
2. उपनीति क्रिया : बालक जब आठवें वर्ष में प्रवेश करता है, तब उपनीति क्रिया सम्पन्न की जाती है। इस क्रिया में केशों का मुण्डन तथा मूंज की बनी मेखला का धारण करना विधेय माना गया है। वैदिक ग्रन्थ मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि में उपनयन संस्कार के बाद ही शिक्षा का प्रारम्भ करना बताया गया है। वास्तव में शास्त्रज्ञान तो इसी क्रिया के पश्चात् प्रारम्भ कराया जाता है।
उपनीति क्रिया के पश्चात् बालक तीन लर की मूंज की मेखला बाँधता है। सफेद धोती धारण करना, चोटी रखना और सात लर की यज्ञोपवीत पहनना ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है। जिनालय में पूजन करना, भिक्षावृत्ति करना और जब तक विद्या की समाप्ति न हो जाये तब तक के लिए ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये। संयमपूर्वक अध्ययन के प्रति आस्था रखते हुए विद्या प्राप्ति के लिए श्रम करना चाहिये। गुरुओं के प्रति विनयपूर्वक व्यवहार करना चाहिये। शुद्ध जल से स्नान करना चाहिये। पृथ्वी पर शयन करना चाहिये तथा निद्रा कम लेनी चाहिये और अल्पाहारी होना चाहिये।
ब्रह्मचारी अध्ययनशील व्यक्ति के लिए वृक्ष की दातौन, ताम्बूल सेवन का, अंजन लगाने का, उबटन या तैल मर्दन का, शृंगारपूर्वक स्नान का, पलंग पर सोने का, अन्य के शरीर सम्पर्क का, मौखर्य वृत्ति का, नाटक-अभिनय आदि देखने का निषेध किया गया है।
3. व्रतचर्या : व्रतचर्या का अभिप्राय विद्याध्ययन के समय संयमित जीवन यापन करने में है। कर्तव्याकर्तव्य का विवेक प्राप्त कर ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये, जो विद्याध्ययन में बाधक हो। विद्यार्थी का एक ही लक्ष्य रहता है, विद्याध्ययन। वह अपनी इसी साधना को पूर्ण करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। सादा जीवन और ज्ञानाराधना ये ही दो उसके जीवन के लक्ष्य रहते हैं।
4. व्रतावरण क्रिया : यह क्रिया विद्याध्ययन की समाप्ति पर सम्पादित की जाती है। विद्याध्ययन से प्रौढ़ मस्तिष्क युवक गुरु या आचार्य के समक्ष जाकर श्रावक