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154 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
शिक्षक - गुरु की अर्हताएँ : शिष्य की योग्यता के साथ गुरु में भी निम्न लिखित गुणों का होना आवश्यक बताया है :
1. सदाचारी। 2. स्थिरबुद्धि। 3. जितेन्द्रिय। 4. सौम्य- अन्तरंग एवं बाह्य दोनों सौम्यता। 5. व्याख्यान शक्ति की प्रवीणता। 6. सुबोध व्याख्या शक्ति। 7. प्रत्युत्पन्नमतित्व। 8. तार्किक। 9. दयालु। 10. विषयों का पाण्डित्य। 11. शिष्य के अभिप्राय को जानने की क्षमता। 12. अध्ययन शीलता। 13. विद्वता। 14. वाड्मय के प्रतिपादन की क्षमता। 15. गम्भीर। 16. स्नेहशील। 17. उदार एवं विचार समन्वय की शक्ति। 18. सत्यवादी। 19. सत्कुलोत्पन्न। 20. अप्रमत्तता। 21. परहित साधन तत्परता।
शिष्य और गुरु के सम्बन्ध का सांकेतिक ज्ञान आदितीर्थंकर ऋषभदेव के द्वारा अपने बालकों को दी गयी शिक्षा से प्राप्त होता है। अध्यापक सवर्ग का व्यक्ति ही होता था। पिता अपनी सन्तान को स्वयं ही सुयोग्य बनाता था तथा अपनी देख-रेख में सकल शास्त्रों की शिक्षा का प्रबन्ध करता था। धार्मिक शिक्षा मुनियों के आश्रम में सम्पादित की जाती थी। कन्याएँ आर्यिकाओं के द्वारा शिक्षा ग्रहण करती थीं। अतएव यह स्पष्ट है, कि गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र के तुल्य था। परिवार में ही प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। उच्च शिक्षा के लिए गुरुकुलों में छात्र अध्ययनार्थ जाते थे। उत्तराध्ययन सूत्र में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध में अच्छा विवेचन किया गया है। छात्र गुरु के समक्ष अत्यन्त विनयी रहता था तथा गुरु की सेवा-भक्ति भी करता था।