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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता 99
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पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी सिन्धुकाल में पाया जाता है । "
सिन्धु और पंजाब की सरहद पर भूमि से एक नगर फिर निकला है । इसको हड़प्पा के नाम से जाना गया है। वह नगर करीब दश सहस्र वर्ष जितना पुराना कहा जाता है। इसमें से भी कई मूर्तियाँ निकली हैं । वे भी उस नगर के बराबर ही प्राचीन बतायी जाती है। हड़प्पा की संस्कृति को ई० पू० 3000 से 2000 वर्ष के काल की मानी जाती है। वे अनार्य एवं अवैदिक थे, किन्तु इनमें उन पश्चिमी आर्यों का जो कालान्तर में वैदिक संस्कृति को जन्म देने वाले थे, कुछ मिश्रण रहा हो सकता है। कम से कम नवोदित वैदिक आर्यों का हड़प्पा वालों के साथ ही सर्व प्रथम एवं सबसे भीषण संघर्ष हुआ । वैदिक साहित्य के दस्यु, असुर आदि यही थे । पश्चिमी एशिया में एक के बाद एक आने वाली सुमेर, असुर, बाबुली आदि सभ्यताओं का सम्पर्क अपने से ज्येष्ठ मोहनजोदड़ो एवं समकालीन हड़प्पा सभ्यता के साथ रहा है। मिस्र की प्राचीनतम सभ्यता भी इसी काल की हैं। ई०पू० 2350 के लगभग हड़प्पा के लोगों के साथ पश्चिमी एशिया की सुमेरी सभ्यता का सम्पर्क निश्चित रूप से रहा प्रतीत होता है । तत्कालीन काल गणना में यह तिथि महत्त्वपूर्ण है। हड़प्पा संस्कृति के चिह्न गंगा, चम्बल और नर्मदा के कांठों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश ( हस्तिनापुर ) आदि में, पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात काठियावाड़ आदि प्रदेशों में भी प्राप्त हो चुके हैं, जो उसके विस्तृत प्रसार के सूचक हैं। इस सभ्यता की उत्तराधिकारिणी झूकर आदि उत्तरवर्ती सभ्यताएँ मानी जाती हैं। उसके पश्चात इन्डो-आर्यों, आर्यों तथा उनकी वैदिक सभ्यता का उदय माना जाता है!
सन् 1964-65 ई॰ में अहिच्छत्र के उत्खनन के द्वारा कुछ तथ्य इस प्रकार से प्रकाश में आए हैं
1. अहिच्छत्र के प्रथम काल में 60 से०मी० ऊँचाई तक गेरुए रंग के मृणपात्रों की प्राप्ति हुई है। इनमें साधार तश्तरियाँ, घट, कटोरे तथा कुंडे प्रमुख हैं। इनमें एक ऐसी भी तश्तरी पायी गई है, जो हड़प्पा संस्कृति में प्राप्त तश्तरियों से मिलती-जुलती हैं। अतः ऐसा माना जाने लगा है, कि गेरुए रंग के मृणपात्रों वाली संस्कृति का सम्बन्ध पूर्व हड़प्पा संस्कृति से था । अतिरजी खेड़ा, लालकिला, सीसथल, मोटाथल तथा सरस्वती घाटी के कई स्थलों से प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर डॉ० आर०सी० गोड़ ने यह मत प्रतिपादित किया है। पिछले वर्षों में कुछ मृण्मुद्राएँ भी दक्षिण पाँचाल क्षेत्र में मुझे प्राप्त हुई हैं, जो गेरुए मृणपात्रों के काल में लिखे के अस्तित्व को प्रकट करती है। यद्यपि इस मृण्मुद्रा की लिपि अपठनीय है। अतः उनके अक्षरों के रूप साम्य के आधार पर ही उन्हें पूर्व हड़प्पा संस्कृति से जोड़ा जा सकता है। इनमें से एक मृण्मुद्रा कीलाक्षरांकित प्रतीत होती है। इस चित्र के आधार पर ऋग्वेद में वर्णित दासराज्ञ युद्ध की प्रमाणिकता सिद्ध होती है, जिसमें पश्चिमोत्तर के पक्थ, भलान, विगाणिन सहित