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________________ 100 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन दस राजाओं को पांचाल नरेश सुदास ने रावी के तट पर स्थित हरियूपिया में परास्त किया था तथा हस्तिनापुर के नरेश संवरण ने सिन्धु नदी पर. स्थित कोट में शरण ली थी। पुरातात्विक रिपोर्ट में स्पष्टतः यह संकेत है, कि अहिच्छत्र प्रथमकाल तथा द्वितीयकाल में निरन्तरता न होकर व्यवधान है। दोनों में लगभग 300 वर्ष का अन्तर था। 2. अहिच्छत्र के द्वितीय काल में घूसर चित्रित मृण्पात्रों की प्राप्ति यह प्रमाणित करती है, कि लगभग 1450 ई.पू. में अहिच्छत्र ने पुनः अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा प्राप्त की। यह महाभारत काल था, जब द्रोणाचार्य ने अहिच्छत्र को अपने अधिकार में रखा तथा दक्षिण पांचाल की राजधानी काम्पिल्य को द्रुपद को सौंप दिया। द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा के बाद अहिच्छत्र का महत्त्व पुनः घट गया। 3. अहिच्छत्र के तृतीय काल का प्रारम्भ काले चमकदार पॉलिश वाले मृण्पात्रों के साथ होता है, जो बौद्ध राज्य से सम्बन्धित है। इस प्रकार उत्तर गंगाघाटी के इस क्षेत्र के पुरावशेषों से न केवल पूर्व वैदिक काल से लेकर महाभारत काल तक के प्रागैतिहासिक काल का पता लगता है, वरन् वैदिक साहित्य में वर्णित संस्कृति व राजवंशों के अस्तीत्व की पुष्टि भी कुछ अंशों तक हो जाती है। विभिन्न स्थानों पर हुए उत्खनन में अब तक सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता सिन्धु सभ्यता ही उजागर हुई है। सिन्धु सभ्यता न केवल अनार्य थी, वरन् निश्चित रूप से द्रविड़ीय थी। यह द्रविड़ संस्कृति जिन, श्रमण संस्कृति की उपासक थी। 2. सिक्के : खुदाई से प्राप्त प्राचीन सिक्के, सोने, चाँदी, ताम्बे, लोहे, सीसा व मिट्टी के भी होते थे। उन पर बने देवताओं के चित्रों व धातुओं से तत्कालिक धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक स्थितियों का ज्ञान होता है। मोहन जोदड़ों में खुदाई से 500 से अधिक मोहरें मिली हैं, जिससे सिन्धु सभ्यता की धार्मिक स्थितियों का ज्ञान होता है। वस्तुतः सिन्धुघाटी की अनेक मुद्राओं में वृषभयुक्त कायोत्सर्ग योगियों की मूर्तियाँ अंकित मिली हैं, जिससे यह अनुमान होता है, कि वे वृषभ लांछनयुक्त योगीश्वर ऋषभ की पूजा करते थे। प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार ने तो वहाँ से प्राप्त एक मुद्रा (न. 449) पर तो 'जिनेश्वर' (जिन इडसरह) शब्द भी अंकित रहा बताया है और जैन आम्नाय की श्री, ही क्लिं आदि देवियों की मान्यता भी वहाँ रही बतायी है। श्री रामप्रसाद चँदा का कथन है, कि “सिन्धु घाटी की अनेक मोहरों में अंकित न केवल बैठी हुई देव मूर्तियाँ योगमुद्रा में हैं और सुदूर अतीत में सिन्धु घाटी में योग मार्ग के प्रचार को सिद्ध करती है, बल्कि खड्गासन देव मूर्तियाँ भी योग की
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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