________________
98 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
__ डॉ. ज्योति प्रसाद जैन का ऐसा मत है, कि सिन्धु घाटी सभ्यता में प्राप्त अवशेषों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है, कि उसके पुरस्कर्ता प्राचीन विद्याधर जाति के लोग थे तथा धार्मिक मार्गदर्शक मध्य प्रदेश के वे मानववंशी मूल आर्य थे, जो श्रमण संस्कृति के उपासक थे। संभवनाथ का विशेष चिह्न अश्व है और सिन्धु देश चिरकाल तक अपने सैन्धव अश्वों के लिए प्रसिद्ध रहा है। मौर्यकाल तक सिंध में एक सम्भूतक जनपद और सांभव (सबूज) जाति के लोग विद्यमान थे, जो बहुत सम्भव है, कि तीर्थंकर सम्भवनाथ जी की परम्परा से सम्बद्ध रहे हों। इसी प्रकार सिन्धु सभ्यता में नागफण के छत्र से युक्त कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं, जो सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व की हो सकती हैं। इनका चिह्न स्वास्तिक है और उत्खनन से प्राप्त सामग्री से हम जान सकते हैं, कि तत्कालीन सिन्धु घाटी में स्वास्तिक एक अत्यन्त लोकप्रिय चिह्न रहा है।
इस प्रकार जैन इतिहास में चौबीस तीर्थंकरों की पाम्परा एक मिथक नहीं है। उसका अपना ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्त्व है, जो पुरातात्विक शोधों के द्वारा निरंतर प्रमाणित होता जा रहा है।
प्रसिद्ध इतिहासकार आर.एस. शर्मा के अनुसार सिन्धु प्रदेश पर आक्रमण करने वाले आर्य ही लगते है, जो ईरान होते हुए भारत आकर यहाँ के सिन्धु प्रदेशों में बसने का प्रयास कर रहे थे। इनके आगमन से इनका सिन्धु के मूल निवासियों के साथ युद्ध होना स्वाभाविक लगता है।
इस सभ्यता को विदेशी आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया। इस मन्तव्य के दो आधार बताए गए हैं :1. मोहन जोदड़ो के ऊपरी स्तर पर पाये गए लगभग 48 नरकंकालों का
अन्वेषण। 2. ऋग्वेद में वर्णित वैदिक देवता इन्द्र का उल्लेख, जिसने कई दुर्गों को
बर्बाद किया। इस प्रदेश में पाये गये नर कंकालों के अध्ययन से पता चला, कि इन पर तलवार जैसे किसी तेजधार वाले हथियार से वार किए गए थे। जबकि सिन्धुवासी शान्तिप्रिय थे। वे हथियारों के बारे में अधिक नहीं जानते थे। हरियूपीय नामक शहर की चर्चा ऋग्वेद में मिलती है, जिसे इन्द्र ने नष्ट किया। विद्वान इसे हड़प्पा मानते हुए आर्यों को इस संस्कृति व सभ्यता का विनाशक बताते हैं !
उत्खनन में प्राप्त सामग्री से यह ज्ञात होता है, कि विवाह एवं धार्मिक उत्सवों के समय ढोल बजाना सिन्धु सभ्यता की ही देन है। सोने-चाँदी, हाथी दाँत, मोती, नीलम आदि के आभूषण सिन्धु काल में भी प्रचलित थे। वे गले में सबसे अधिक आभूषण पहनते थे। आज का शतरंज व पासों का खेल सिन्धु सभ्यता की देन है।