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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 97
भगवान महावीर की मूर्ति प्राप्त हुई थी। (परिशिष्ट 5) तक्षशिला के पास अंग्रेजों ने खुदाई का काम करवाया था, जिसमें भूमि में से एक नगर निकला 'मोहन-जोदड़ो'। उस नगर में से करीब 500 वर्ष प्राचीन ध्यानावस्थित एक मूर्ति प्राप्त हुई। यह भारत सरकार के केन्द्रीय पुरातात्विक संग्रहालय में सुरक्षित सील क्र0 620/1928-29 है। इस सील में दायीं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान् ऋषभदेव हैं, जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशुल है, जो रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र) का प्रतीक है। निकट ही उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत है, जो राजसी ठाठ में हैं। वे भगवान के चरणों में अंजलिबद्ध भक्तिपूर्वक नतमस्तक हैं। उनके पिछे वृषभ (बैल) है, जो ऋषभदेव जी का चिह्न (पहचान) है। अधोभाग में सात प्रधान अमात्य हैं, जो तत्कालीन राजसी गणवेश में पदानुक्रम से खड़े हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त सील में हमें सात विषय दिखाई देते हैं - 1. ऋषभदेव नग्न कायोत्सर्गरत योगी, 2. प्रणाम की मुद्रा में नतशीश भरत चक्रवर्ती, 3. त्रिशुल, 4. कल्पवृक्ष पुष्पावलि, 5. मदुलता, 6. वृषभ (बैल) 7. पंक्तिबद्ध गणवेश धारी प्रधान अमात्य। जैन वाङ्मय से इन तथ्यों की पुष्टि होती है। इतिहासवेत्ता श्री राधाकुमुद मुकर्जी ने भी इस बात को माना है, कि मथुरा संग्रहालय में भी ऋषभ की इस तरह की मूर्ति सुरक्षित है। पी.सी. राय ने भी माना है, कि मगध में पाषाणयुग के बाद कृषि युग का प्रवर्तन ऋषभयुग में हुआ।
इस तरह की संरचना का आधार कोई सुदृढ़ सांस्कृतिक परम्परा ही हो सकती है। भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य ने इस तथ्य को पुष्ट किया है, कि सिन्धुघाटी की सभ्यता जैन सभ्यता थी। सिन्धुघाटी के संस्कार जैन संस्कार थे। सिन्धुघाटी में प्राप्त योगमूर्ति यह सिद्ध करती है, कि जैन धर्म प्राग्वैदिक ही नहीं वरन् सिन्धु घाटी सभ्यता से भी अधिक प्राचीन है।
श्री रामप्रसाद चन्दा ने अगस्त 1932 के 'मॉर्डन रिव्यू' में कायोत्सर्ग मुद्रा के सम्बन्ध में लिखा है, कि 'यह जैनों की विशिष्ट ध्यान मुद्रा है और जैन धर्म प्राग्वैदिक है, उसका सिन्धुघाटी की सभ्यता पर व्यापक प्रभाव था।'
श्री पी.आर. देशमुख के ग्रंथ 'इंडस सिविलाइजेशन एण्ड हिन्दू कल्चर' में यह स्पष्ट उल्लेख है, कि "जैनों के पहले तीर्थंकर सिन्धु सभ्यता के ही थे। सिन्धु जनों के देव नग्न ही थे। जैन लोगों ने उस सभ्यता, संस्कृति को बनाये रखा और नग्न तीर्थंकरों की पूजा की।" . सिन्धु जनों की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत जनसामान्य की भाषा है। जैनों और हिन्दुओं में भारी भाषिक भेद है। जैनों के समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ प्राकृत में है। जबकि हिन्दुओं के समस्त ग्रन्थ संस्कृत में है। प्राकृत भाषा के प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है, कि जैन प्राग्वैदिक है और उनका सिन्धुघाटी सभ्यता से सम्बन्ध था।