________________
[ ८ ]
उवाघ, अपत्थणिअं असंजद जहि
१- अप्पडकु मुच्छादि जणण रहिदं, गेरहदु समणो यदि वि अप्पं ॥ २२ ॥ आहारे व विहारे देशं कालं समं खमां उपधिं । - जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ॥ ३० ॥ ( भ० कुन्द कुन्द प्रवचन सार )
दिगम्बर मुनि उपाधि का स्वीकार करे, परन्तु उस में ममत्व नहीं रखें। श्राहार और विहार में उपधि की अपेक्षा को समझ कर योग्य प्रवृति करे ।
२ - सेवा चउविहलिंगं, अभिंतरलिंगसुद्धि मावण्णो । बाहिर लिंगमकज्जं, होइ फुडं भाव रहियाणं ॥ १०६ ॥ ( आ० कुंद कुंद कृत भाव प्राभुत गा० १९ )
पुरा ओ, दोणि वि लिंगाणि भणदि
३ - ववहार मोक्ख पहे ।
.च्छियत्रो दु च्छिदि, मोक्खपड़े सव्वलिंगाणि ॥
टीकांश - व्यवहारिक नयो द्वे लिंगे मोक्षपथे मन्यते । द्रव्य लिंगमात्रेण संतोषं मा कुरु किन्तु द्रव्यलिंगाधारेण निश्चय-रत्न त्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप भावनां कुरुत । द्रव्यलिंगाधार भूतो योऽसौ देहः तस्य ममत्वं निषिध्वं ।
मान व्यवहारनय मोक्षमार्ग में मुनि वेश और ज्ञानादि एवं दोनों का स्वीकार करता है और निश्चयनय मोक्ष मार्ग में सब लोगों का निषेध करता है ।
भा कुंद कुंद कृत समय प्राभृत गा० ४४४ • जिन सेन कृत तात्पर्य वृत्ति पृ० २०८ ) ४ - पिंडं उवधि सेज्जं, उग्गम उप्पाद सणादीहि । 'चरित रक्खगई, सोधिंतो होइ सुचरितो ।। २६३ ॥
( भगवती आराधना गा० १९३ पृ० ११४ ) -