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[ १९ ] ५-उपधि, ज्ञानोपधि, संयमोपधि, तप उपध्रि इत्यादि
(मा. वकटेर कृत मूलाचार परि० १ गा• १४, परि० ३ गा -1 परि० ४ गा० १३८ परि० १० गा. २५,१५)
पिंडोवधि सेज्झायो, अविसोधिय जोय मुंजदे समणो मूल ठाणं पत्तो, भुवणे सु हवे समणपोल्लो ॥ २५ ॥ फासुगदाणं फासुगमुवधि, तह दो वि अत्त सोधीए
देदि जो य गिण्हदि, दोएहपि महप्फलं होइ ।। ४५ ॥ पिंड, उपाधि, शय्या, संस्तारक फासुक उपाधि वगैरह।
(मूलाचार परिच्छेद .. ) ६-सम्यक्त्व ज्ञान शीलानि तपश्चेतीह सिद्धये । तेषा मुपग्रहार्थाय स्मृतं चीवर धारणम् ..
(वाचक श्री उमा स्वातिजी ) ७-८"अविविक्त परिग्रहाः” “उपकरणाभिष्वक्त चित्तो विविध विचित्र परिग्रह युक्तः बहु विशेष युक्तोपकरणा कांक्षी तत्संस्कार प्रतिकार सेवी" - ये सब भिन्न २ निर्गन्थों के लक्षण हैं, उप करण के कारण ही निर्गन्थों में जो जो भेद हैं वे यहां बताये गये हैं इसीसे सप्रमाण है कि पांचो निग्रन्थ वस्त्रादि उपकरण को रखते हैं।
द्रव्य लिंगं प्रतीत्य भाज्याः ___ श्रमणों का द्रव्य लिंग माने वस्त्रादि वेध भिन्न २ प्रकार के होते हैं और इस द्रव्यलिंग के जरिये निर्गन्थ भी अनेक प्रकार के हैं (पूज्यवाद कृत सर्वार्थ सिद्धि और आ......कृत राजवार्तिक पृ• ३५८ १५९)
"कम्बलादिकं गृहीत्वा न प्रक्षालंते" इत्यादि - (दि० प्रा० श्रुत सागर कृत तस्वार्थ भ० ९ सू० ० की टीका, चर्चा सागर समक्षा प्रस्तावना):