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चेलुक्कुद्देसिय सेज्जाहर रायपिंडं किदियम्मं ।
वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जो समण कप्पो ॥
( दि० आ० वट्टवेरकृत मूलाचार परि० १० गा १८ आ० नि० गा० १२४६ ) अब वे ही आचार्य मुनि के लिये उपधि वगैरह की भी श्राज्ञा देते हैं| देखिये—
पिंड़ोवधि सेज्झाओ, विसोधिय जो य भ्रंजदे समणो । मूलठाणं पत्तो भ्रुवणे सु हवे समणपोल्लो || १० | २५ | टीकांश - पिंडं उपाधं शय्यां आहारोपकरणाऽ ऽवासादिकम विशोध्य इत्यादि । समणपोल्लो अर्थात् श्रामण्यतुच्छः ।
फासुग दाणं फासुगउवधिं तह दोवि त्तसोधीए । जो दि जो हिदि, दागपि महफ्फल होइ ।। । १० । ४५ ।। टीकांश - हिंसादि दोष रहित सुपकरणम्
गावहि संजमुवहिं सउचुवहिं अरणमच्युवहिं वा । पयदं गह- किखेवो संमिदी आदाण शिकवा ॥ मुनि को ज्ञानोपाध संयमोपधि और भिन्न २ उपाधि होती है । ( परि० २ गा० १४ )
मुनि के लिये और भी उपाधि का जिक्र । ( प० ३ गा० ११४ ) गुरु साहम्मिय दव्वं, पुत्थय मरणं च गेरिहदुं इच्छे | तसिं विणयण पुणो णिमंतणा होइ कायव्वा ॥ गुरु द्रव्य, साधमिक मुनि द्रव्य, गुरु पुस्तक (प०४ गा० १३८) सारांश - अचेल कल्प भी वस्त्र की मर्यादा करने वाला होने से वस्त्र विधान का अंग ही है।
१३८ ॥
दिगम्बर
-- वस्त्र वाले को सामायिक चारित्र नहीं होता है । जैन - सामायिक देशावगासिक और पौषध ये साधु जीवन
के प्राथमिक शिक्षा पाठ है । इन सामायिक श्रादि को बस्त्र वाले