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हो सकती है ? वस्त्रों की मर्यादा के लिये स्वतंत्र विधान अनिवार्य था, जो श्रावेलक्य से बताया गया I
संस्कृत वगैरह भाषाओं में सर्वथा निषेध या अल्प निषेध करना हो, तब समासमें अ और अन् शब्द का प्रयोग किया जाता है जैसे कि
अ=निषेध | अ+जीव-जीव से भिन्न, जीव रहित । अ + वृष्टि= वृष्टि का अभाव |
अ = अल्पत्व | अ+नुदरी कन्या = छोटे पेटवाली कन्या f अ+श=अल्पज्ञ | अ+वृष्टि = अल्पबृष्टि | अ + ज्ञान = अल्प ज्ञान विपरीतज्ञान | अ+बला = अल्पबला । इत्यादि
इस प्रकार यहाँ अचेल का अर्थ भी अ + चल माने "अल्प वस्त्र होना" यही किया गया है ।
इस कल्प से वस्त्रों का निषेध नहीं बल्कि मर्यादा हो जाती है । इस मर्यादा से भिन्न या अधिक वस्त्र रखने वाला निर्गन्थ मुनि वकुश है जो बात तत्वार्थ सूत्र के “विविध विचित्र परिग्रह युक्तः वहु विशेष युक्तो पकरणा कांक्षी" इत्यादि से स्पष्ट है । दिगम्बर आचार्य को भी श्रावेलक्य का यही अर्थसम्मत है ।
दिगम्बर दिगम्बरों ने आचेलक्य कल्प का विधान ही नहीं किया है । फिर सम्मति कैसी ? जो अपरिग्रह से ही अचेलभाव का स्वीकार करते हैं । वे अचेलक कल्प का भिन्न विधान करके अपनी स्वीकृति को कमजोर क्यों बनावें ?
Compleme
जैन —अपरिग्रहता में वस्त्र की व्यवस्था नहीं है अतः एव दिगम्बर ग्रन्थकार श्रावेलक्य रूप वस्त्र व्यवस्था का अलग विधान करते हैं। देखिये
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