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इसी प्रकार श्वेताम्बर शास्त्रों में भी उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष्य से अधिक मानी गई है (तत्वार्थ भाष्य पृ० ५२) और १ समय में १०८ का मोक्ष बताया है, अत: यहां अघट घटना को अवकाश ही नहीं है।
जैन-जैसे क्षपकश्रेणी वाले पुरुष स्त्री और नपुंसककी संख्या में फर्क माना जाता है (धवला टीका पु०३ पृ० ४१६ से ४२२) वैसे मोक्ष को पाने वाले उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य अवगाहना के जीवो की संख्या में भी फर्क माना जाता है। श्वेताम्बर शास्त्र एक समय में १०८ जीवों का मोक्ष बताते हैं वह सीर्फ माध्यम अवगाहना वाले पुरुषो के लीये है, न कि उत्कृष्ट व जघन्य अव. गाहना वाले जीवो के लीये, वे १ समय में उत्कृष्ट अवगाहना वाले १०८ जीवोके मोक्ष की साफ मना करते हैं। यह बात अवगाहना की तरतमता के कारण ठीक भी है। इस हिसाब के जरिए १ समय में उत्कृष्ट अवगाहना वाले १०८ का मोक्ष होना, आश्चर्यरूप माना जाता है।
दिगम्बर-भगवान् और उनके पुत्र-पौत्रों की उम्र में फर्क है तो फिर उन सब की अवगाहना में भी फर्क होगा।
जैन-उत्कृष्ट अवगाहना तो साधारणतया जवानी में ही हो जाती है। देखिए, दिगम्बर आ. श्रुतसागरजी साफ लीखते हैं कि__ यः किल षोडषे वर्षे सप्तहस्तपरिमाणशरीरो मविष्यति 'स गर्भाष्टमे वर्षे अर्धचतुर्था रत्निप्रमाणो भवति' । तस्य च मुक्ति भवति मध्ये नाना भेदावगाहनेन सिद्धि भवति ।
__ याने ७ हाथ को अवगाहना के हिसावसे १६ वे वर्ष में ७ हाथ और ८ वे वर्षमें ३॥ रत्नी अवगाहना होती है उसकी मुक्ति होती है।
( तत्वार्थसूत्र, अ० १०, सूत्र ९, टीका ) उस समय भगवान् ऋषभदेव और बाहुबली की उम्र में करीबन ६ लाख पूर्व का फरक था। ऐसे ओरों २ को उम्रमें भी फरक था। किन्तु अवगाहनामें फर्क नहीं था वे सब जवान थे या वृद्ध थे, कोई भी बालक नहीं थे। अतः वे उत्कृष्ट अवगाहना