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१०६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
विक्रय होता था ।' बहुमूल्य वस्तुएँ अगर, तगरपत्र, कुकुम, कस्तूरी, शंख, लवण आदि का भी विक्रय किया जाता था। यह आश्चर्यजनक है कि उस युग में शंख और लवण बहुमूल्य माने जाते थे, बाजारों में निम्न, मध्यम एवं उत्तम सब प्रकार के वस्त्रों का विक्रय होता था ।३ निशीथचूर्णि से ज्ञात होता है कि पिप्पली, हरिताल, मैन्सिल, लवण आदि सामग्रियां सैकड़ों योजन दूर से मंगाई जाती थीं। कुवलयमालाकहा से ज्ञात होता है कि विनीता ( साकेत ) के एक बाजार में ८४ प्रकार की वस्तुओं की दुकानें थीं, जिनमें एक ओर कुकुम, कपूर, अगर, कस्तूरी, पडवास आदि सुगन्धित वस्तुएँ बेची जाती थीं, दूसरी ओर इलायची, लौंग, नारियल, मोती, स्वर्ण, रत्न, वस्त्र, नेत्रपट ( एक विशेष प्रकार का पारदर्शी वस्त्र ) सरस औषधियाँ, शंख, वलय, कांच, मणि, वाण, धनुष, तलवार, चक्र, माला, चामर, घंटा, खाद्य एवं पेय बेचे जाते थे।" उपासकदशांग में वर्णित १५ कर्मदानों से प्रतीत होता है कि स्थानीय एवं विदेशी मंडियों में हाथीदाँत, विष, पशुओं का चर्म, लाख, लकड़ी आदि द्रव्यों का व्यापार होता था।६
माप-तोल विधियाँ आवश्यकनियुक्ति में उल्लिखित है कि लेन-देन के व्यवहार की दष्टि से ऋषभदेव ने यान, उन्मान, अवमान और प्रतिमान का भी अपनी प्रजा को ज्ञान कराया था। जैन ग्रन्थों में मूल्य-निर्धारण एवं क्रय-विक्रय की सुविधा हेतू चार प्रकार की पद्धतियाँ प्रचलित थीं-गणिम, धरिम, मेज्ज और पारिच्छ।' १. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४, गाथा ४२५० २. जई अंकम-कत्थूरिय-तगरपत्तचोय-हिंगु-संखलोयमादि
__निशीथचूणि, भाग ४, गाथा ५६६४ ३. वही, भाग २, गाथा ९५७ ४. हरितालमणोसिला जहा लोणं । "एते पिग्पलिमादिणो जोयणसतातो आगया
वही, भाग ३, गाथा ४८३४ ५. सूरि उद्योतन-कुवलयमालाकहा, पृ० १०८ ६. उपासकदशांग १/३८ ७. आवश्यकनियुक्ति गाथा २१३, २१४ ८. गणिय-धरिम मेज्ज पारिंञ्छ
ज्ञाताधर्मकथांग ८/६६; निशीथचूणि, भाग १, गाथा २४२