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272 / Jijñāsā
चित्रण के लिए चूने की पतली (पुताई) चढ़ाने के बाद बेल-बूटे बनाये जाते हैं चित्रण माध्यम के लिए यद्यपि चित्रकारों के स्वयं के द्वारा निर्मित रंगों और तूलिकाएं ही सामान्यतः प्रयोग की जाती हैं किन्तु सुविधा की दृष्टि से आजकल बाजार में उपलब्ध रंगों व ब्रश आदि का प्रयोग भी किया जाने लगा है। देश, काल, परिस्थिति, आवश्यकता, उपलब्धता आदि कारणों से परिवर्तन अवश्यंभावी है यदि परम्परायें बनती है अतः संस्कारों के संशोधन और परिवर्तन भी होता रहता है। उनमें स्थायी रूप अथवा एकरूपता असम्भव है अतः संस्कारों के संशोधन से चली आ रही परम्पराओं में भी परिमार्जन होता रहता है। 14
बुंदेलखंड में यद्यपि वर्ष भर अनेकों व्रत त्यौहार, उत्सव आदि मनाएं जाते हैं किन्तु दतिया का सांझी महोत्सव लोक कला का एक उत्तम उदाहरण है । चितेउरियों द्वारा द्वार सज्जा में द्वार के ऊपर गणेश का अंकन किया जाता है। इस प्रकार के रिद्धि-सिद्धि के साथ गणपति का अंकन ओरछा एवं दतिया के मंदिरों, महलों एवं छत्रियों के भी ऊपरी भाग में एवं भित्तियों पर मिलते हैं। यद्यपि उनके शैलीगत अंकन कौशल में भिन्नता दिखाई देती है तथापि मुद्राओं में समानता देखी जा सकती है। इसी प्रकार द्वारों के ऊपर एवं दोनों किनारों पर विभिन्न खंड बनाकर उसमें आले निर्मित कर कुछ को बेलबूटों से अत्यल्प चित्रण द्वारा सजाने की परम्परा भी देखी जाती है।
महेश मिश्र ने मंदिरों एवं महलों के प्रवेश द्वार अर्थात् सिंह' पौर' या पोर पर निर्मित आलों के निर्माण के विषय में उल्लेख करते हुए इन्हें नवगृहयंत्र के रूप में माना है चिनी खनों के नाम से वर्णित नौ आलों वाले ये प्रवेश द्वार जिन पर मध्य शीर्ष भाग पर गणपति चित्रित है सम्भवतः इन्हें गृह सम्पत्ति इत्यादि से सुरक्षित यंत्र के रूप में निर्मित किया जाता है ऐसी धारणा है। यद्यपि आले युक्त प्रवेश द्वार मुगल स्थापत्य में भी बनाये गये हैं। अतः यह लोक परम्परिक धारणा कितनी प्राचीन है यह तथ्याभाव में स्थापित नहीं किया जा सकता ।
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लोक चित्रण में प्रयुक्त किये जाने वाले सीमित रंगों में मुख्य रूप से लाल, हरा, नीला, काला, पीला व सफेद आदि रंगों का ही अमिश्रित प्रयोग किया जाता है जो बाजार में उपलब्ध रंगों के अतिरिक्त गेरू, पीली मिट्टी, नील, चूना पत्थर से भी निर्मित की जाती है चितेउरियों द्वारा चित्र लिखने का कार्य मुख्य रेखांकन (रंगों के रेखा चित्र) द्वारा ही किया जाता है चित्रित आकृतियों में रंग नहीं भरा जाता लोक चित्रण में बनाये जाने वाले आकार अत्यन्त सादे सरल होने के अतिरिक्त पूर्व निश्चित पारम्परिक रूप से बनाते चले जाने वाले आकारों का ही प्रयोग प्रचलन देखा जाता है। उनके निश्चित नाम भी प्रचलित हैं जैसे तिरखूंट (त्रिभुज), चौखूंट (चतुर्भुज), लम्बौचौखूंट (आयत), कट्टा (धन+) व गुणा (X) तोरण, पाई (खड़ी, आड़ी व पड़ी छोटी रेखा), गोला, अण्डा, डणीच (लकीर) एवं टिपकी या बिंदी आदि ।
लोककला समस्त औपचारिकताओं से मुक्त एवं परे है इसमें सादगी से तथा सीधे-सीधे अपनी बात रखने का प्रयास रहता है जिससे उसकी ग्रहणशीलता बढ़ जाती है और विषय के अतिरिक्त दर्शक का ध्यान कहीं और नहीं जा पाता। लोककला जन साधारण की कला होने के कारण किसी एक निश्चित समूह या समुदाय, श्रेणी, वर्ग के लोगों के लिये नहीं वरन् सभी के रसास्वादन के लिये होती है। बुंदेलखंड के दतिया- ओरछा आदि के केन्द्रों में अनेक ऐसे चित्र हैं जिनके अंकन में कलाकार की सहजता - सरलता एवं भावनात्मकता का दर्शन होता है। लोक कला शास्त्रीय नियमों से नहीं अपितु मानवीय भावनाओं और विश्वास पर आधारित आनंद की अनुभूति और संतुष्टि प्रदान करने वाली अलिखित किन्तु लोक सहमति के नियमों पर आधारित है, जो उसे परम्परा के रूप में ग्राह्य बनाने का सामर्थ्य प्रदान करते हैं जिसमें लोक मंगल की कामना एवं आनंद सर्वोपरि है।
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संदर्भ:
1. शर्मा, जयदेव, ऋग्वेद संहिता, भाषा भाष्य, अजमेर, षष्ठ खंड, 2000 (सं. 1992 वि.) सप्तमोष्टक, दशमं मंडलम् -6 पृ. 546 वही तृतीयखंड. सं. 1991 वि. तृतीयोष्टक. चतुर्थ मंडलम् पृ. 842