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बुंदेलखंड की चित्रकला में लोक परम्परा का निर्वहन / 271
जिनमें इष्टदेवी देवताओं के अनेक पूजा योग्य चित्र निर्मित हैं। यहां लोक चित्रण की मुख्य रूप से दो परम्परायें प्रचलित हैं। एक प्रदेश की गृहस्थ स्त्रियों द्वारा विविध तीज त्यौहारों, व्रत पूजन एवं विविध संस्कारों आदि पर चित्रण करना दूसरे, वंश परम्परानुसार बुलकियों, कमानीगारों, चितेउरियों द्वारा व्यवसाय के रूप में अपनाया गया। विविध उत्सवों, व्रत, आयोजनों व अवसरों, अनुष्ठानों, संस्कारों तथा त्यौहारों आदि पर द्वार की सज्जा, पना चित्रण, विवाह के समय रगवारौ, बेसन की गौर, बाबाजू, सावनी की मटकियां व सुअटा की गौर तथा रक्षाबंधन, करवाचौथ, छठी, नागपंचमी आदि पर चित्रण, मिट्टी के बर्तनों पर लिखना एवं पूजा के लिए विसर्जनीय कच्ची प्रतिमायें बनाना आदि सम्मिलित हैं। इसी प्रकार बुंदेलखंड में दीवाली के समय स्त्रियां सफेद भित्ति पर सुरेती आकृति बनाती हैं, जिसमें विष्णु-लक्ष्मी, नाग-नागिन, सूर्य-चंद्र, सप्तर्षि, श्रवण कुमार, बालक, विष्णु-लक्ष्मी आदि का अंकन किया जाता है। (रेखाचित्र फलक-1)
बुंदेलखंड में चितेरों के नाम से प्रसिद्ध लोक चित्रकार यह कार्य अधिकता से कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि दतिया के महाराजा शत्रुजीत के काल में चित्रकारों को बसाने के लिये एक ही स्थान पर (चितेउरियों का मुहल्ला) रहवास का प्रबंध किया गया था। आज भी वहां एवं सम्पूर्ण बुंदेलखंड में कई चितेरे परिवार निवास करते हैं, जिनके पूर्वज चित्रण कार्य करते थे। यहाँ कई परिवार नवीन भी हैं जो अपने स्थानों को छोड़कर यहां आकर बस गए सम्भवतः कुछ चित्रकार प्रजापति अर्थात् मिट्टी का कार्य करने वाले जाति के भी हो सकते हैं।
घर मंदिरों के द्वारों को सुसज्जित करने के अतिरिक्त अनुष्ठान पूजा इत्यादि आरम्भ करने के पूर्व जमीन की गोबर से लिपाई के भी विविध प्रकार मान्य किये गये हैं। जैसे घर के अंदर से बाहर लीपना (उरैन), बाहर से अंदर की ओर लीपना आदि विभिन्न प्रयोजनों की मान्यता के अनुसार ही किया जाता है। इसी प्रकार लीपने के उपरान्त पूजा स्थल पर अन्य किसी भी कर्म के प्रारम्भ के पूर्व गेंहू के आटे से "चौक पूरने" एवं ढिग निकालने (कमूरा बनाना) की प्रक्रिया अनिवार्यतः होती है। भारत में समस्त प्रदेशों में चौक पूरने की परम्परा है। अवसरों के अनुरूप चौक पूरने के भी विविध प्रकार हैं, जिनमें "अष्टदल कमल अथवा फूलचौक" व बेलइया चौक प्रमुख अष्टदल कमल के अंकन की परम्परा उत्तर भारत में भी पारम्परिक रूप से देखने को मिलती है। 'फूलचौक' व बेलइया चौक विशेष पूजा अवसरों पर बनाये जाते हैं। आंगन में अथवा पूजा स्थल में चौक पूरने के साथ उसके चारों ओर सीमान्त रेखा को दर्शाने के लिये किया जाने वाला आलंकारिक अंकन कमूरा बनाना या ढिग निकालना कहते है। इसकी भी अंकन आकृतियां निश्चित हैं। कुछ अवसरों पर जमीन के ऊपर ईंट आदि से ऊँचा चबूतरा सा बनाकर उसे चूना मिट्टी से पुताई अथवा लिपाई के द्वारा तैयार किया जाता है। तब उस पर मुख्य चित्रकर्म किया जाता है। जैसे वर्तमान में दतिया में मनाया जाने वाला प्रसिद्ध सांझी महोत्सव में इसके अतिरिक्त, कागज पर भी लोक चित्रण की परम्परा अत्यधिक प्रचलित है जिसमें विशेष पूजा, त्यौहारों, अवसरों पर कागज पर रंगीन सीमा रेखा के अंदर देवी-देवता के पारम्परिक आकृतियों में चित्रण किया आता है। इसे 'पना' कहा जाता है। इसी में करवाचौथ के चित्र एवं दीवाली पर पूजने वाले लक्ष्मी जी के चित्र भी सम्मिलित हैं। कुलदेवता के चित्रों को कपड़ों पर (पटचित्र) भी अंकित किया जाता है। वैवाहिक अवसरों पर दूल्हा-दुल्हन के हाथ के छापे द्वारों के दोनों ओर लगाने की प्रथा है पान अथवा पीपल के पत्तों को भी कुछ व्रत-पूजा के अवसरों पर चित्रांकन में प्रयुक्त किया जाता है। मंगलसूचक कलशों (मटकियों) का भी विशेष अवसरों पर सुसज्जित कर उपयोग किया जाता है। इसी तारतम्य में उन छोटे-छोटे मिट्टी के खिलौनों व मूर्तियों का भी लोक चित्रों में सम्मिलित किया जा सकता है जिनका प्रयोग उत्सवों त्यौहारों में पूजा आदि मंगल अवसरों के लिए बनाया जाता है। जैसे, बाबाजू, लक्ष्मी, गणेश, गणगौर13 आदि (बुलकियों एवं कमनीगरों के द्वारा इनका निर्माण किया जाता है) पात्रों पर किये जाने वाले चित्रण को कलाकार पात्र पकाने के पूर्व अथवा पकने के बाद (दोनों ही प्रकार से) चित्रित करते हैं। पकाने के बाद बनाए जाने वाले