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270 / Jijnaāsā
मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ स्वस्थ, सुखी जीवन एवं दीर्घायु हेतु उसके द्वारा निर्मित तीज-त्यौहार, उत्सव, व्रत, पूजा, अनुष्ठान का प्रावधान किया गया और इस हेतु कथा, कहानियों, किवदंतियों व घटनाक्रमों का सहारा लिया गया, जिनकी व्याख्या हेतु देवी-देवताओं, असुरों, यक्षों, आदि अनेकानेक असंख्य पात्रों के साथ पशु-पक्षियों तथा प्रकृति के समस्त अंग स्वरूप रूपाकृतियों की कल्पना कर उनकी सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों का सृजन किया गया। बुंदेलखंड के दतिया तथा ओरछा केन्दों में चित्रकला के माध्यम से श्रीमद्भागवत्, रामायण इत्यादि की कथाओं व घटनाक्रमों तथा प्रसंगों को अंकन हेतु अपने विषय रूप में चुना। इन विषयों में रहस्यात्मकता के लिए विविध प्रतीकों का समावेश भी किया जैसे गज, चक्र कमल, गजलक्ष्मी, शिव आदि देवताओं के वाहन तथा आयुध वानर, त्रिशूल, गदा, स्तम्भ पार्श्वदेवता मंदिर प्रतीक, शिखा, तिलक, नट, चतुर्भुज, त्रिभुज, अष्टभुज आदि। इसके अंकन एवं अलंकरण में मंगलसूचक प्रतीकों का भी यथा संभव प्रयोग किया जाता है। जिनमें सूर्य, चंद्र, गजलक्ष्मी, गणेश, घट, पुष्प-पत्रयुक्त पुष्पपात्र, पुष्पपत्र, पुष्पगुच्छ, पुष्पपत्र युक्त लतायें, अश्व पंक्ति, बतख, पद्मयुक्त जल के साथ बगुला, गज, अश्व, मयूर, शुक, सारस, मत्स्य, कछुआ, जलकुक्कुट, मृग व गाय आदि का अंकन प्रमुख रूप से किया जाता है।
प्राचीन ग्रंथों में 'लोक देवता एवं लोक देवी के नाम उल्लिखित हैं, जिनमें विष्णु सूर्य, चंद्र, रूद्र ऐरावत हाथी, वासुदेव, यम, सिंह, मकर, गंगा इत्यादि हैं। बुंदेलखंड की चित्रकला में मकरवाहिनी गंगा का चित्रण भी मिलता है। महिष पर विराजमान यम, अर्द्धमानवीय स्वरूप में गरूड़ तथा उनके कन्धों पर सवार विष्णु इसी प्रकार नवग्रहों का चित्रण भी लक्ष्मी मंदिर, ओरछा में शिव बारात में मिलता है मनु स्मृति में सूर्य, चंद्र, अग्नि, वायु, यम, वरूण, इन्द्र व कुबेर को आठ दिकपालों में माना गया है।" दतिया एवं ओरछा के चित्रों में सूर्य-चंद्र को बहुतायत से चित्रित किया गया है। रामायण में भी इन्द्र, कुबेर, वरुण, यम को लोकपाल, के रूप में स्वीकृत किया गया है। पुराणों में इंद्र को पूर्व, अग्नि को दक्षिण पूर्व, यम को दक्षिण सूर्य को दक्षिण पश्चिम, वरूण को पश्चिम वायु को पश्चिमोत्तर, कुबेर उत्तर तथा सोम को उत्तर पूर्व का दिक्पाल ब्रह्मा ने बताया है। मत्स्य पुराण और देवी भागवत् में भी इन्हें आठ दिशाओं को लोकपाल कहा गया है।" लक्ष्मी मंदिर के शिव विवाह के चित्र में श्वेत छः सूडवाले हस्ति पर सवार इन्द्र का अंकन है। लोक मान्यता के अनुसार ही पति की दीर्घायु की कामना से गणगौर पूजन किया जाता है । ओरछा के लक्ष्मी मंदिर के एक चित्र में देवी माता के मंदिर के बाहर अनेक स्त्रियों को बैठकर अपने सामने सामने छोटे-छोटे शिवपुरुष अथवा शिव-पार्वती की आकृतियों के समक्ष पूजन की मुद्रा में संभवतः बालियां हाथ में लिये पूजा करती है। यहीं पर स्त्री-पुरुष बालियां लिये नृत्य करते हुए तथा सिर पर सामान व बालियां लिये आती हुई स्त्रियों का भी अंकन है यह यहां की प्रचलित लोकपरम्परा का दिग्दर्शन कराता है एक अन्य चित्र में शिव एवं गणेश मंदिर के बाहर अंकित है तथा अनेक स्त्रियां इसी प्रकार के किसी पूजन का आयोजन करती प्रतीत होती हैं। घर में धन सम्पदा एवं वैभव सम्पन्नता की परिचायक के रूप में श्री लक्ष्मी एवं गज लक्ष्मी का चित्रण ओरछा के लक्ष्मी मंदिर में अनेक स्थानों पर मिलता है। बुंदेलखंड में मातृका पूजन, भूदेवी, श्रीदेवी एवं लक्ष्मी के अतिरिक्त पार्वती एवं दुर्गा की पूजा भी प्रचलित है। इसी प्रकार यदाकदा सरस्वती चित्रण भी प्राप्त होता है।
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लोक प्रचलित दो किंवदंतियों का भी चित्रण है, जिसमें एक नारी कुंजर का लघु प्रसंग है। जिसमें श्रीकृष्ण की हस्ति सवारी की इच्छा पर गोपियों सहित राधा ने हाथी तैयार किया, इस प्रकार का चित्र राजस्थानी चित्रकला में बहुतायत से मिलता है। इसी प्रकार शक्तिशाली चुंगलचिड़िया का भी चित्रण है जिसे बुंदेला राजा ने मारा था ऐसी लोकोक्ति है यद्यपि यह कितना सत्य है यह नहीं कहा जा सकता।
लोककला, उत्सव, त्यौहारों, अनुष्ठानों व पूजा - व्रतों से संयुक्त करके ही देखी जाती है। इन अवसरों पर इष्ट देवी-देवता का प्रतीकात्मक चित्रण कर उसकी पूजा के उपरान्त कथा-कहानी कहने व सुनने की परम्परा है।