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________________ 268 / Jijñāsā 36. बुंदेलखंड की चित्रकला में लोक परम्परा का निर्वहन संध्या पाण्डेयं अपर्णा अनिल लोककला परम्परा बुन्देलखण्ड के चित्रों का प्राण है, जिसके अभाव में बुंदेली कला निष्प्रभ, निष्प्राण स्वत्वहीन एक प्रक्रिया मात्र है। लोक-परम्परा दो शब्दों से मिलकर बना है। 'लोक' व 'परम्परा' का अर्थ है, पूर्वकाल से अनवरत चली आ रही मान्यता, विचार अथवा प्रक्रिया। लोक शब्द अत्यंत प्राचीन है लोक परम्परा के संबंध में प्राचीन ग्रंथों में विशद विवरण उपलब्ध है। ऋग्वेद में 'लोक' शब्द के लिये 'जन' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'लोक' के लिए जीवन व स्थान प्रयुक्त किया गया है। उपनिषदों में भी 'लोक' शब्द का उल्लेख है। श्रीमद्भगवद् गीता में 'लोक' व 'परलोक' शब्द का उल्लेख है। विद्वानों का मानना है कि 'लोक संस्कृति' व लोक साहित्य, आधुनिक शब्द है। पुराणों में पृथ्वी के अतिरिक्त सात लोकों का वर्णन है। जिनमें अतल, वितल, सुतल, समातल, महातल, रसातल एवं पाताल का उल्लेख है। ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में सृष्टि की प्रकिया के संबंध में उल्लेखनीय है पुरूष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से जीवलोक, पैरों से भूमि, कानों से दिशाएं उत्पन्न हुई। इस प्रकार लोकों को कल्पित किया गया। नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीष्णौ द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रातथा लोकां अकल्पयन।। इसी प्रकार महाभारत में भी कई बार 'लोक' शब्द एवं विभिन्न लोकों का प्रयोग हुआ है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि 'लोक' शब्द का अर्थ 'जनपद' या ग्राम नहीं है बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं। इन सारे उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि 'लोक' का अर्थ 'सामान्य जनता' से है। लोक परम्परा में लोकाचार, लोकसंस्कृति, लोकोत्सव, लोकवस्त्राभूषण, लोकदेवी-देवता, लोकधर्म इत्यादि ही किसी भी संस्कृति की सत्य पहचान होती है। लोकाचारों के अंतर्गत लोक हित में उन सदाचारों को ग्रहण करना है जिनसे उनके समुदाय का मुख्यतः हित होता हो। जिस काल में किसी क्षेत्र व युग में जिन आचारों को लोक ग्रहण कर दीर्घकाल तक उन्हें सम्मानित रूप से मानते एवं पालन करते हैं वे लोकाचार वहां की लोक परम्परा का रूप धारण कर लेते हैं। पाप-पुण्य, एवं जन कल्याण के लिए श्रद्धा व विश्वास, लोक धर्मिता को जन्म देते हैं। समुदाय के भले एवं लाभ हेतु किन्हीं विशेष आयोजनों की प्रक्रिया हेतु विशिष्ट देवी-देवता की मान्यता उन्हें पारम्परिक रूप से प्रस्थापित करती है और वे 'लोक देवी-देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। सामान्यतः भारतीय संस्कृति में समस्त विभिन्न क्षेत्रों के देवी-देवता जो कि शास्त्रों-पुराणों में उल्लेखित हैं जिनके निर्माण के नियम भी उल्लेखित हैं किन्तु उन देवी-देवताओं के अतिरिक्त अन्य कई देवी-देवता हैं जो
SR No.022813
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages236
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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