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पूर्व मध्यकालीन उत्तर भारत की राजनीतिक व्यवस्था / 407
राजा राज्य के सर्वोच्च पद पर था वह साम्राज्य का प्रधान था एवं प्रतिहारों के सांमत अपने अधिपति के लिए महाराजाधिराज, परमेश्वर परममहाराज जैसे विरुदों का प्रयोग करते है। जबकि वे स्वंय राजा और महाराज जैसे साधारण विरुदों का प्रयोग करते है। उसी राजतंत्र को सर्वोच्च कहा गया है जो राजा के अधीन आत्मयत अर्थात राजा द्वारा स्वंय शासित हो वह सभी अधिकारों से युक्त हो।18 प्रतिहार शाासक नागभट्ट को नागावलोक अर्थात सम्प्रभु कहा गया है तथा मलेच्छाधिप की बलवती सेनाओं को परास्त करने वाला, लोगों की रक्षा के लिए नारायण स्वरुप प्रकट होने वाला कहा गया है। नागभट्ट द्वितीय को शत्रुओं का संहार करने वाला, भोज प्रथम को आदि वराह कहा गया है अर्थात विष्णु का अवतार भारत भूमि को मलेच्छ (अरबो) से मुक्त कराने के कारण उसे यह उपाधि मिली। वत्सराज को राणा हस्तिन तो महेन्द्र पाल को निर्भय नरेन्द्र, रघुकुल मुक्ता मणि, आर्यावर्त का महाराजाधिराज भी कहा गया राजाओं को देवस्वरुप कहने का उद्देश्य राजा के दैवीय अधिकारों की बात करना नहीं था, वरन् योग्यता पूर्वक देश की रक्षा करने के कारण उन्हें ऐसा कहा गया। अतः यह मान्यता बनी कि राजा के राजनीति के एवं सामाजिक परम्पराओं से प्रदत अधिकारों के साथ-साथ उसके कर्तव्य भी सर्वोपरि रहे।
राजा को ईश्वर की तरह सर्वशक्तिमान होना चाहिए। वह सभी कार्य करने के सक्षम हो तथा जिसके नेतृत्व पर कोई नियंत्रण नही हो ऐसी परम्परागत विचाराधारा में प्रतिहार काल में परिवर्तन दिखाई देता है। प्रतिहार शासको की विशेषता रही वे धार्मिक प्रवृति वाली विचार धारा को तो मानते थे अर्थात कानून या विधि के न तो निर्माता थे, नही उसके ऊपर। किन्तु सामाजिक और सामुदायिक परम्पराओं और नियमों से बंधे थे।
इस समय समाज का आधार विभिन्न प्रकार के संगठन थे। मन्दिर, मठ, विहार, ग्रामों के संगठन, जातीय संगठन, व्यापारिक श्रेणियाँ आदि राजाओं से अलग स्वतंत्र रूप से चलते थे वे केवल उसी स्थिति में राजा के पास जाते थे जबकि किसी विवाद को वे आपस में नही सुलझा पाते थे और राजा द्वारा हस्तक्षेप की आवश्यकता तब तक नहीं होती थी जब तक वे बिना किसी परेशानी के कार्य करते रहते थे उनके सामाजिक जीवन में राजा का
कोई स्थान नहीं था। ... राजा को प्रशासन को चलाने, सेना के रखरखाव, सांस्कृतिक एवं धार्मिक संस्थानों के खर्च के लिए अपने घरेलू खर्च के लिए धन की आवश्यकता होती थी। राजा या राज्य की आय के साधनों के विषय में दान पत्रों से पता चलता है कि राजा समस्त भूमि दलदल, बंजर भूमि, जंगलात, खान,नमक उत्पादन के स्त्रोतों का स्वामी कहा गया है। उसे कुछ अपराधों पर लगाने वाले करों से भी आय द्वारा होती है। देवपाल के नालंदा ताम्रपत्र से पता चलता है कि जुर्माना वसूल करने के लिए अधिकारी नियुक्त किया जाता था। जिसे 'दशापराधिक' कहा जाता था। भर्तृवड्ड द्वितीय के हसोड अभिलेख में दान, उद्रंग, उपरिकर के साथ भोग, भोगकर का उल्लेख मिलता है दान, शुल्क, तरादया, अद्रयाया, अभव्य जैसे शुल्कों के नाम मिलते है। अतः ऐसा लगता है कि यह राजा की आय के स्वतंत्र स्त्रोत थे। किन्तु यह कहा जाना कि राजा के अधिकारों और आय में कमी हुई थी युक्ति संगत नही लगता, जैसा कि सांमतवादी व्याख्याकारों ने माना।
राजा प्रभुता सम्पन्न होता था। वह सामन्तों तथा क्षेत्रीय प्रमुखों की भी नियुक्ति करता था। सामन्तों की नियुक्ति राजा द्वारा की जाती थी इसकी पुष्टि देवगढ़ अभिलेख" से होती है जहां प्रतिहार राजा भोजदेव द्वारा महासामंत विष्णुराम को ‘पंचमहाशब्द' की उपाधि प्रदान की गई।
सामंत प्रशासन की दृष्टि से अपने क्षेत्र के स्वतंत्र स्वामी होते थे। साम्राज्यिक सत्ता का उनके शासन में कोई हस्तक्षेप नही होता था। वे महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक महासामन्ताधिपति, महासांमन्त महामाण्डलिक, राजकुल, ठाकुर, रणक आदि विरुद धारण करते थे।