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________________ 406 / Jijāsä होता है कि प्रतिहारों का साम्राज्य विस्तृत प्रतिष्ठा का प्रतीक था। प्रतिहारों का साम्राज्य गोरखपुर उज्जैन, कनौज और बुन्देलखण्ड तक विस्तृत था। अपने चरमोत्कर्ष के समय उनका विस्तार पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम में सिंधु सौराष्ट्र, गुजरात तक, उत्तर में हिमालय की निचली पहाड़ियों से लेकर दक्षिण में सारे बुन्देलखण्ड मालवा तक विस्तृत था तो पूर्वी पंजाब दिल्ली सम्पूर्ण राजपूताना उनके अधीन था। इतने विस्तृत साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का विवरण जानने के लिए कौटिल्य एवं मैगस्थनीज जैसे लेखकों के विवरण उपलब्ध नही है जो उस समय के राजवंशें के राजनीतिक सिद्धान्तों उनके व्यवहार का विवरण प्रस्तुत कर सके।" यद्यपि कृत्यकल्पतरु? मानसोल्लास 13 जैसे ग्रंथ उपलब्ध हैं। कृत्यकल्पतरु के राजधर्म काव्य से तत्कालीन प्रशासन के पीछे छिपे हुए सिद्धान्तों की जानकारी मिलती है। यद्यपि ये परम्परागत विवरण ही प्रस्तुत करते है। पूर्व मध्य काल के राजनैतिक परिदृश्य के साथ साथ तत्कालीन राजनैतिक संरचना में गुर्जर प्रतिहारों के विशिष्ट संदर्भ को ध्यान में रखते हुए डॉ. दशरथ शर्मा ने राजस्थान श्रू द ऐजेज फ्रॉम अर्लियस्ट टाइम्स टू 1516 ए डी. बीकानेर 1996; बैजनाथ पुरी ने हिस्ट्री ऑव गुर्जर प्रतिहारस नई दिल्ली 1986, वी.बी. मिश्रा ने द गुर्जर प्रतिहार दण्ड देयर टाइम्स, नई दिल्ली 1960 के माध्यम से प्रतिहारों के इतिहास लेखन पर कार्य किया है उन्होंने कम और अधिक दोनों दृष्टियों से ही उनके प्रशासन और उसके विभिन्न पक्षो पर प्रकाश डाला है। उन्होंने भी प्राचीन भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था के संदर्भ में प्रतिहार कालीन प्रशासनिक व्यवस्था को प्रस्तुत किया किन्तु नए अभिलेखों और सामंतवाद की नई व्याख्याओं के आलोक में पुनः इस व्यवस्था के पुनरावलोकन का अवसर दिया। राजनैतिक इतिहास का अध्ययन करने वाले विद्वानो के अतिरिक्त प्राचीन भारतीय शासन पद्धति के ऊपर लेखन करने वाले प्रो. अनंत सदाशिव अल्तेकर ने अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, जैसे ग्रन्थों (जो कि शासन पद्धति पर लिखे गए थे.) की सूचनाओं को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में प्रस्तुत किया उन्होंने वैदिक, बौद्ध, जैन वाड्मय, राजतरंगिणी, मैगस्थनीज, युवान च्वांग जैसे विदेशी इतिहास लेखको एवं चीनी यात्रियों के वृतात तथा प्राचीन अभिलेखो आदि का सागोपांग विवेचन करते हुए प्राचीन भारत की शासन कुछ पद्धति के साथ ही पूर्वमध्य कालीन शासन व्यवस्था का भी कुछ परिचय दिया। आर. एस. शर्मा ने अपनी पुस्तक भारतीय सांमतवाद’ में पूर्व मध्य कालीन इतिहास के सम्बंध में नई व्याख्याएं प्रस्तुत की जिसे सामंतवादी व्याख्या कहा गया। उन्होंने कहा कि प्रतिहार राजाओं ने भूमि दान के साथ भूमि से सम्बन्धित सम्पत्ति के अधिकार भी दिए। इससे आर्थिक ढांचा भी बिगड़ा, व्यापार वाणिज्य का पतन नगरो का पतन तथा सिक्को की कमी हुई। उन्होंने इस परिवर्तन को तत्कालीन अभिलेखिक साक्ष्यों के आधार पर आंकने का प्रयास किया। __ आर.एस. शर्मा की मान्यता है कि इस काल में बड़ी मात्रा में दान दिए गए। इन अनुदानों के परिणाम स्वरुप देश में प्रचुर आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग, मध्यम वर्ग खड़ा हो गया। इतना ही नहीं इनसे भूमिधर ब्राह्मणों की संख्या बढ़ने लगी। उनका ध्यान भू-सम्पत्ति पर केन्द्रित होने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि शासन तंत्र पर केन्द्र का सक्षम और व्यापक नियंत्रण लुप्त होने लगा। इस व्याख्या की प्रतिहार शासकों की प्रशासनिक व्यवस्था के संदर्भ में विश्लेषण किया जाना भी इस लेख का उद्देश्य है। प्रतिहारों में प्रशासन के बारे में हमें सूचना उनके सामन्तों के अभिलेखों, समकालीन साहित्यिक साक्ष्यों, समकालीन शासकों के विवरणों यथा राष्ट्रकूट, पाल एव गहड़वाल शासकों के विवरणो तथा प्रचलित धार्मिक परम्पराओं से प्राप्त होती है।" प्रतिहारों का साम्राज्य विशाल था जिसके प्रशासनिक व्यवस्था के लिए जहां केन्द्रीय प्रशासनिक संस्थाएं थी, वही सामन्तों से युक्त गई छोटी कई प्रशासनिक ईकाइयों का ढीला ढाला संगठन था इनके प्रान्तीय प्रशासन तथा स्थानीय प्रशासन को चलाने के लिए भी अधिकारी नियुक्त किए गए थे।
SR No.022813
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages236
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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