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भारतीय राष्ट्रिकों द्वारा चीन का निर्माण / 373
46. भारतीय राष्ट्रिकों द्वारा चीन का निर्माण
धर्मचन्द चौबे
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के संदर्भ में कई विद्वानो को चीन भेजा था। ये विद्वान मध्य एशिया एव दक्षिण पूर्व एशिया के व्यापारिक-सांस्कृतिक मार्ग से चीन गए थे ।' पी.सी. बागची के अनुसार खोतान देश की परंपरा कहती है कि वहाँ पर 211 ई.पू. में पहला स्तूप बना था। अशोक के पोते विजयसम्भव ने खोतान (चीन) देश में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। आर्य वैरोचन ने खोतान के राजा को बौद्ध धर्म का उपदेश दिया था। तानचुंग नामक विद्वान जिनके पिता तान-युनशान गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के एशियाई सहयोगी थे, और जिन्होनें विश्व भारती विश्वविद्यालय, शान्ति निकेतन में चीन भवन नामक भारत-चीन ऐतिहासिक बन्धुत्व एवं शाश्वत मैत्री के पीठ की स्थापना कराई थी, ने अपने शोध विषय इन्डिया इन द मेकिंग ऑफ चायना में यह सिद्ध किया है कि पूर्व आधुनिक काल में भारत ने चीन का सांस्कृतिक एवं साहित्यिक निर्माण किया था। पूर्व कम्यूनिस्ट चीन के लोग तीन भारतीयों को अपने राष्ट्रीय त्योहारों पर अवश्य स्मरण एवं नमन करते थे। ये हैं बुद्धसिंग (भगवान बुद्ध), कुमारजीव और अमोघवज्र ।' इन्हें पूर्व आधुनिक चीन के लोग अपने राष्ट्रीय शिक्षक के रूप में पूजते थे। तानचुंग ने अपने सिनिक अध्ययन में पाया है कि चीन-जापान, बर्मा, कोरिया, मंगोलिया, हिन्दचीन, हॉगकॉग, ताइवान, सिगापुर और थाईलैण्ड के निर्माण में भारतीय राष्ट्रिकों की अहम भूमिका रही है। इन देशों की संस्कृति के रग-रग में भारतीय संस्कृति रची-बसी है।
इन प्रारम्भिक भारतीयों ने कब-कब चीन में प्रवेश किया और किस प्रकार से चीन की भाषा, संस्कृति, धर्म, नाटक, एवं लोक जीवन को प्रभावित किया इसका वर्णन जि-शियालिन एवं लियांग चि-चाओ नामक आधुनिक चीनी विद्वानों ने अपने शोध पत्रों एवं पुस्तकों में किया है। भारत की आजादी के बाद टिंग-शिलिन, चीन केहम, तान-युन शान एवं उनके पुत्र तानचुंग ने अपनी पुस्तकों में चीन के 'डायनेस्टिक एनल्स' नामक राजवंशो के
स तथ्य सकालत कर उन भारतीय राष्ट्रको के चीनी राष्ट्र के निर्माण में योगदान को रेखांकित किया है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की 1924 में चीन यात्रा के दौरान बीजिंग में स्वागत के कम में भाषण देते हुए इंडोलॉजिस्ट लियांग चिचाओं ने चीन के निर्माण में भारतीयों को नमन करते हुए अपने भावपूर्ण उद्बोधन में कहा कि हमारे (चीन) पूर्व में अथाह प्रशांत का जल था, जो हमें लहरों के सिवा कुछ दे नहीं सकता था, हमारे उत्तर में गोबी का मरुस्थल था, जिस ओर से हूणों का आक्रमण होता था और हमारे पश्चिम में रूस का स्टेपी (ग्रास लैण्ड) था और जिसके आगे के बाशिन्दे भी हमें कुछ देने की स्थिति में नहीं थे एक मात्र ज्ञान की रश्मि ने दक्षिण पश्चिम से हमारे चीन में प्रवेश कर हमें जगमग किया था, ये श्रीमन्त (गुरुदेव) उसी पुण्य भूमि से आज यहाँ आये