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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना ही बंगला, उडिया, भोजपुरी, मैथिली, अवधी छत्तीसगढी, वघेली आदि भाषायें निकली हैं और पश्चिमी अपभ्रंश से राजस्थानी, गुजराती, बुन्देली आदि भाषायें उद्भूत हुई हैं। दोनों के मूल में शौरसेनी प्राकृत रही है। शौरसेनी प्राकृत से शौरसेनी अपभ्रंश और इससे एक ओर हिन्दी की बोलियां व्रजभाषा, खड़ी बोली, बुन्देली तथा दूसरी ओर उसके एक प्रादेशिक रूप नागर या महाराष्ट्री अपभ्रंश से गुजराती और पश्चिमी राजस्थानी का विकास हुआ है।
अपभ्रंश कवियों की भाषा हिन्दी के आदिकाल की ओर झुकती हुई दिखाई देती है। हेमचन्द्र तक आते-आते यह प्रवृत्ति और अधिक परिलक्षित होने लगती है। उदाहरणतः -
भल्ला हुआ जो मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु। लज्जेज्जन्तु वयंसिय हु, जइ भग्ग धरु एंतु ।।
हिन्दी के आदिकाल को अधिकांश रूप में जैन कवियों ने समृद्ध किया है। इनमें गुजराती और राजस्थानी कवियों का विशेष योगदान रहा है। यहां हम अपभ्रंश कवियों को छोडकर गुजराती और राजस्थानी हिन्दी जैन साहित्यकारों का विशेष उल्लेख कर रहे हैं। उनका समय साधारणतः १३-१४वीं शती के बीच होता है। इस युग में काव्य और रासा साहित्य ही अधिक मिलता है। इसलिए यहां हम प्रवृत्तिगत उल्लेख न कर आचार्य क्रम से उसका विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। ११-१२वीं शती का साहित्य अपभ्रंश मूलक है। इसलिए उसे यहां विस्तारभय से छोडा जा रहा है।