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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना माहिष्मती, पट्टण, धारा, काशी, लक्ष्मणवती आदि नगर भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। कन्नोज का राजवंश, सिंध राजवंश, काबुल और पंजाब की राजशक्तियां, कश्मीर की राजनीतिक परम्परा, उज्जयिनी का परमारवंश, त्रिपुरी का कलचुरी वंश, शकम्भरी और दिल्ली के चौहान, जेजाक मुक्ति के चन्देल, इस्लामी संस्कृति का प्रवेश, इस्लामी आक्रमणों की भयंकरता और राजपूत शासन ने इस आदिकाल को बहुत प्रभावित किया। ब्राह्मणवाद और जातिवाद से त्रस्त जनसमाज में श्रमण विचारधारा द्वारा पोषित आध्यात्मिक चेतना ने नूतन चित्तवृत्तियों को जन्म दिया और सामाजिक विश्रृंखलता से बचने के दूरगामी उपाय जैनाचार्यों ने किये। अस्पृश्यता, दास प्रथा, मजहबी अत्याचार, नारी की गिरती हुई स्थिति आदि के विरोध में उन्होंने खुलकर अपना स्वर तेज किया। सूफियों और कलन्दरों के प्रभाव से उद्भूत इस्लाम के उदार रूप ने भी उनका सहयोग किया।
इस काल में संस्कृत साहित्य पाण्डित्य प्रदर्शन तथा शास्त्रीय वादविवाद के पचड़े में पड़ गया। वहां भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष पर अधिक जोर दिया गया। इसे ह्रासोन्मुख काल की संज्ञा दी जाती है। उत्तरकाल में इसका कोई विकास नहीं हो सका।
स्थापत्य कला में श्रृंगार और अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल में अधिक पाई जाती है। वहां सामान्यतः नागरशैली का सम्बन्ध अधिक रहा है। भक्ति तत्त्वों का भी अच्छा विकास हुआ है। भक्ति आन्दोलनों से जैन समाज भी अप्रभावित नहीं रह सका। तान्त्रिक धारा ने भी उसमें अपना प्रवेश पा लिया जिस पर जैन मुनियों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। पाहुड दोहा, योगसार, परमात्म प्रकाश, वैराग्यसार,