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आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
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यह कहकर अस्वीकार कर देते हैं कि यदि हिन्दी जैन साहित्य को साहित्य की सीमा से बहिर्भूत कर दिया गया तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जायेगा। लगभग दसवीं शती के पूर्व की भाषा में अपभ्रंश के तत्त्व अधिक मिलते हैं । यह स्वाभाविक भी है। इसे चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और राहुल सांकृत्यायन ने पुरानी हिन्दी कहकर उसके महत्त्व को प्रतिष्ठापित किया है। हिन्दी का परवर्ती साहित्य अपभ्रंश भाषा और साहित्य से क्रमशः विकसित हुआ है। उसमें प्रयुक्त देशी शब्द ही वस्तुतः पुरानी हिन्दी का रूप है। स्वयंभू और पुष्पदन्त के अपभ्रंश ग्रन्थों में यह रूप बडी आसानी से देखा जा सकता है। अतः इसे हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं - पहला अपभ्रंश बहुल हिन्दी काल और दूसरा प्रारम्भिक हिन्दी काल । स्वयंभू अपभ्रंश को 'देसी भासा' की संज्ञा दी है। इससे हिन्दी के विकास में अपभ्रंश और देशी भाषा के महत्त्व को विशेष रूप से समझा जा सकता है। उत्तरकालीन कवि लक्ष्मणदेव ने णेमिणाहचरिङ में 'णउ सक्कड पाउअ देस भासा' कहकर इसी स्वरूप को 'अवहट्ट और देसिल वअना' की संज्ञा दी है । रुद्रट, राजशेखर आदि कवियों ने भी अपभ्रंश को भाषा के विभेदों में गिना है। अतः इस काल को हिन्दी का आदिकाल कहा जा सकता है। इसके बावजूद व्यावहारिक दृष्टि से हम आदिकाल को लगभग ११वीं शती से १४वीं शती तक मानते हैं; ७वीं शती से १०वीं शती तक का काल उसकी पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है । सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
आदिकाल संस्कृत और प्राकृत - अपभ्रंश की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद बाण और श्री हर्ष तक कान्यकुब्ज संस्कृत का प्रधान केन्द्र रहा। इसी तरह मान्यखेट,