SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 71 आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ 71 अपभ्रंश और अवहट्ट अपभ्रंश ने कालान्तर में साहित्यिक रूप ले लिया और भाषा के विकास की गति के हिसाब से वह आगे बढ़ी जिसको अवहट्ट कहा गया। इसी को हम पुरानी हिन्दी कहना चाहेंगे। विद्वानों ने इसकी काल सीमा ११ वीं शती से १४ वीं शती तक रखी है। अब्दुल रहमान का संदेसरासक, शालिभद्र सूरि का बाहुबली रास, जिनपद्म सूरि का थूलिभद्द फागुआदि रचनाएं इसी काल में आती हैं। ___ इस काल की अवहट्ट किंवा पुरानी हिन्दी में सरलीकरण की प्रवृत्ति अधिक बढ़ गई। विभक्तियों का लोप-सा होने लगा। परसर्गो का प्रयोग बढ़ गया। ध्वनि परिवर्तन और रूप परिवर्तन तो इतना अधिक हुआ कि आधुनिक भाषाओं के शब्दों के समीप तक पहुंचने का मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगा। विदेशी शब्दों का उपयोग बढ़ा। इल्ल, उल्ल आदि जैसे प्रत्ययों का प्रयोग अधिक होने लगा। संभवतः इसीलिए डॉ.रामकुमार वर्मा ने अपभ्रंश साहित्य को भाषा की दृष्टि से हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत स्वीकार हिया है। “चूंकि भाषा को साहित्य से पृथक् नहीं किया जा सकता इसलिए अपभ्रंश साहित्य भी हिन्दी साहित्य से सम्बद्ध होना चाहिये भले ही वह संक्रान्तिकालीन रहा है।' विद्वानों के इस मत को हम पूर्णतः स्वीकार नहीं कर सकते। हॉ. प्रवृतियों के सन्दर्भ में उसका आकलन अवश्य किया जा सकता है। हिन्दी -आदिकाल के विकास में जैनाचार्यों का योगदान इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि जैनाचार्य जहाँ भी रहे, वहां की भाषा और साहित्य के विकास में भरपूर योगदान दिया। लगभग
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy