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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना विद्वानों का भी ध्यान अपभ्रंश साहित्य की ओर आकर्षित हुआ। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, रामचंद शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, रामकुमार वर्मा, भोलाशंकर व्यास, नामवरसिंह, शिवप्रसादसिंह, रामचन्द तोमर, हीरालाल जैन, भयाणी, देवेन्द्रकुमार जैन, राजाराम जैन, भागचन्द्र जैन भास्कर आदि विद्वानों ने अपभ्रंश का अध्ययन किया और उसे पुरानी हिन्दी अथवा देशी भाषा कहकर सम्बोधित किया। सरहपा, कण्ह आदि बौद्ध संतों ने , स्वयंभू, पुष्पदंत आदि जैन विद्वानों और चन्दवरदाई तथा विद्यापति जैसे वैदिक कवियों ने भी इसको इसी रूप में देखा। अपभ्रंश और अवहट्ट ने हिन्दी के विकास में अनूठा योगदान दिया है। इसलिए हमने अपभ्रंश और अवहट्ट को हिन्दी के आदिकाल का प्रथम भाग तथा पुरानी हिन्दी को आदिकाल का द्वितीय भाग माना है।
अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव मरु गुर्जर साहित्य पर भी पडा है। अपभ्रंश की चित्रदर्शन, स्वप्नदर्शन, शुकहंस आदि को दूत बनाने की प्रवृत्ति, समुद्र यात्रा में तूफान आदि कथानक रूढियां अपभ्रंश से गुर्जर
और राजस्थानी साहित्य में पल्लवित हुई हैं। अपभ्रंश के दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि मात्रिक छन्दों का प्रयोग यहां बहुत हुआ है। रास, फागु, चउपइ, वेलि, चर्चरी, छप्पय, बारहमासा, लावणी, प्रहेलिका, आख्यान, चरित, वावनी, छत्तीसी, सत्तरी, चूनडी आदि जैसे विविध काव्य रूप अपभ्रंश साहित्य के ही प्रभाव में पनपे हैं। जैन साहित्य का अंगीरस शान्तरस भक्ति और निर्वेद की गोद में पलकर अपभ्रंश साहित्य के द्वार से यहां और भी विकसित हुआ है। रसराज शान्तरस का स्थायी भाव वैराग्य है जो जैनधर्म की मूल आत्मा है। जैन साहित्य का अधिकांश भाग वैराग्यपरक ही है।