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आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
69 विकासकाल में आ चुका था। साथ ही कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ भी बढ़ गई थीं जिनका सम्बन्ध हिन्दी के आदिकाल से हो जाता है। सम्भवतः इसी कारण से उद्योतन सूरि ने अपभ्रंश को संस्कृत-प्राकृत के शुद्धाशुद्ध प्रयोगों से मुक्त माना है। कुवलयमाला से 'देसी भासा' के कुछ उदाहरण दिये भी जाते हैं जो नाटक साहित्य से लिए गए हैं।
ताव इमं गीययं गीयं गामनडीए, जो जसु माणुसु वल्लहउ तंजइ अणु रमेइ। जइ सो जाणइ जीवइ वि तो तहु पाण लएइ।।
नाटकों में भी अपभ्रंश का प्रयोग हुआ है। शूद्रक ने उसका प्रयोग हीन पात्रों के लिए किया है। वहां मथुरा की उक्ति में उकार बहुलता दिखाई देती है। स्वयंभू, पुष्पदंत आदि की भी अपभ्रंश रचनाएँ हमारे सामने हैं ही। इन्हीं रचनाओं में देशी भाषा के भी कतिपय रूप दिखाई देते हैं। राष्ट्रकूट और पाल राजाओं के आश्रय से अपभ्रंश का विकास अधिक हुआ। इधर मम्मट (११ वीं शती), वाग्भट (१२ वीं शती), अमरचन्द (१३ वीं शती), भोज, आनन्दवर्धन जैसे आलंकारिकों ने अपभ्रंश के दोहों को उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया जो उस भाषा की महत्ता की ओर स्पष्ट इंगित करते हैं। हेमचन्द (१२ वीं शती) द्वारा उल्लिखित दोहों को देखकर तो अपभ्रंश के पाणिनि डॉ. रिचार्ड पीशेल भावविभोर हो गये और उन्हीं के आधार पर उन्होंने उसकी विशेषताओं का आकलन कर दिया जो आज भी यथावत् हैं। डॉ. याकोबी ने भी भविसयत्तकहा' की भूमिका में अपभ्रंश साहित्य की विशेषताओं की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है।
इन विदेशी विद्वानों के गहन अध्ययन के कारण हमारे देश के